नीरजा माधव। फगुआ फीका लगता है, जब तक फाग और चहका की उन्मादक गूंज न हो। डफ, मृदंग, झांझ और ढोल की थाप न हो। टेसू के रंग और उन रंगों में आपाद्मस्तक सराबोर राधा की अपनी सखियों से गुहार न हो। फाग के बोलों में एक अनजाना-सा अपनापा झलकता है। एक दूसरे को रंग डालने की ऐसी बरजोरी कि श्याम श्याम न रह पाएं और राधा की धवलता पर राग की ऐसी लालिमा चढ़ा दी जाए कि वह आकुल हो उठे अपने कान्हा को अपना-सा रंग देने के लिए। यह द्वैत मिटे तो विरह की पीर कटे।
राधा का आविर्भाव प्राचीन शास्त्रों में कब हुआ, राधा तत्व का विकास किस तरह हुआ और कृष्ण की पूर्णता का प्रतीक वह कब बनी, इस पचड़े में चाहकर भी मन नहीं रमना चाहता। राधा तत्व चिरंतन है, प्रवाहमान है। जब हम उसे अपनी संकीर्ण अंजुरी में भरकर देखने का प्रयास करते हैं, तो अंगुलियों की फांक से बूंद-बूंद रिस कर वह पुन: नदी बन जाती है और हथेली में थोड़े-से रेतीले कण छोड़ जाती है। एक ऐसी नदी, जिसमें आकर मिलने वाले नाले, ताल, पोखर भी उसी का रूप हो जाते हैं, नाम हो जाते हैं। एक तत्व कृष्ण-प्रेम, एक भाव, राधा-भाव। वैसे ही जैसे गंगा में गिरने वाली तमाम छोटी—बड़ी नदियां गंगा बन जाती हैं। पार्थक्य समाप्त हो जाता है, अस्तित्व का द्वैत मिट जाता है और गंगा बनी नदियां पूर्ण समर्पण के साथ वेग से दौड़ पड़ती हैं, अनंत सागर की ओर।
जब तक नि:स्वार्थ समर्पण न हो, तब तक कोई भी प्रेम पूर्णता, यानी ईश्वर को नहीं पा सकता है। कृष्ण के प्रति राधा का पूर्ण समर्पण है। उनका समर्पण उदात्त प्रकटीकरण है। देशकाल और अन्य किसी सत्ता का आभास नहीं। उनमें 'मैं' के बंधन से छूटने की छटपटाहट और 'हम' बन जाने की अदम्य चाहत है। लेकिन क्या इतना आसान है 'मैं' से छूट जाना? 'हम' बन जाना? वह भी ऐसे परमानंद श्याम के सम्मुख, जो निराकार रूप में साक्षात् ब्रह्म है, तो सगुण रूप में माखनचोर भी है। इसलिए वह बन पाना तो बहुत कठिन है, लेकिन उसे अपना-सा बना लेना आसान है। 'हम' ही बनना है, तो चंदन घिसकर पानी में मिले या पानी स्वयं में चंदन को घुलाने का कार्य करे, कोई अंतर नहीं पड़ता। इसलिए राधा स्वयं को समर्पित करती है। अपने को चंदन की तरह घिसती है, लेकिन घिसकर चंदन बनने के लिए पानी को पहले आना ही होता है।
(लेखिका आध्यात्मिक विचारक हैं)
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