थोड़ा सा आगे की सोचते तो अपने हर एक भाषण, तस्वीर, किताब और सोच को भी कड़े कॉपीराइट क़ानूनों के ताले में जकड़ कर रखते. कमाई डॉलरों में होती, परिवार का भी भला होता, गांधी आश्रम भी चमचमाते रहते.
अपनी किताबों का कॉपीराइट उन्होंने नवजीवन ट्रस्ट को दे दिया, वीडियो और ऑडियो भारत सरकार की संपत्ति हैं, तस्वीरें कई जगह बिखरी हुई हैं.
नवजीवन ट्रस्ट ने भी 2009 में उनकी किताबों को सार्वजनिक संपत्ति घोषित कर दिया. लेकिन गांधी बाबा के सिद्धांतों की नींव पर बनने वाले कई महल आज आकाश चूम रहे हैं.
पचासवीं वर्षगांठ
अमरीका में काले लोगों के समान हक़ के लिए लड़ने वाले डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग जूनियर को देख लीजिए.
गांधी के सिद्धांतों पर चले, उनकी बातें दोहराईं, इतिहास बदलने वाला "आई हैव ए ड्रीम" भाषण दिया और महानायक बन गए.
लेकिन डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अपने उस भाषण को कड़े कॉपीराइट क़ानून से बांध दिया.
डॉक्टर किंग का कहना था कि उससे होने वाली कमाई को कालों के हक़ की लड़ाई में लगाएंगे. पांच साल बाद एक सरफिरे ने उन्हें गोली मार दी.
अब उससे होने वाली कमाई उनकी चार संतानों की मिल्कियत है और कई बार उसके बंटवारे पर मुकदमेबाज़ी भी हो चुकी है.
उनका फलसफ़ा बहुत सीधा सा है. महानायक पर सबसे पहले उसके परिवार का हक़ होता है फिर देश या समुदाय फ़्रेम में आते हैं.
अगले हफ़्ते उनके उस ऐतिहासिक भाषण की पचासवीं वर्षगांठ है. वॉशिंगटन में धूमधाम से मनेगी, अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी भाषण देंगे.
कॉपीराइट से मालामाल
महात्मा गांधी से जुड़ी कई चीजें कई नीलामियों में रखी जाती हैं
लेकिन हम और आप उस भाषण को क़ानून के दायरे में रहकर पढ़ना या देखना चाहें तो डीवीडी की क़ीमत है 20 डॉलर यानी लगभग बारह सौ रुपए.
और अगर कोई मीडिया कंपनी उसे दिखाना या छापना चाहे तो उसे हज़ारों डॉलर देने होंगे जिनमें किंग परिवार का भी हिस्सा होगा.
अगर कोई इस अमरीकी क़ानून की अवहेलना करता है तो उसकी सज़ा वही है जो किसी अपहरणकर्ता की होती है.
नब्बे के दशक में 'यूएसए टूडे' ने उनके भाषण को पूरा छाप दिया तो उन्हें अदालत के चक्कर लगाने पड़े और फिर कोर्ट के बाहर समझौते के तहत किंग परिवार को हज़ारों डॉलर हर्जाना देना पड़ा.
किंग परिवार ने उनके भाषण के कॉपीराइट अधिकार म्यूज़िक कंपनी ईएमआई को दे रखे हैं. टीशर्ट पर मार्टिन लूथर किंग की तस्वीर हो या फिर किसी हार्डकोर व्यवसायिक विज्ञापन में उनके नाम का इस्तेमाल, किंग परिवार का सब में हिस्सा तय है.
किसी फ़िल्म में अगर उनसे जुड़ी कोई बात दिखाई जाती है तो उसकी भी कीमत है.
इसी शुक्रवार को अमरीका में रिलीज़ हुई फ़िल्म 'दी बटलर' में गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन का कई बार ज़िक्र है. लेकिन बापू तो चूक गए.
शुरू कर दें मोलभाव
डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग के साथ आंदोलन में शरीक रह चुके लोगों का कहना है कि डॉक्टर किंग के जीते जी ऐसा कभी नहीं होता और वो शायद अपनी कब्र में करवटें बदल रहे हों. लेकिन जो भी हो जाने-अनजाने में ही परिवार का भला तो कर गए.
अलग बात है कि "लैंड ऑफ़ द फ़्री" कहलाने वाले अमरीका में भी उनके शब्द आज़ाद नहीं है.
वॉशिंगटन का मार्टिन लूथर किंग मेमोरियल
उनके शब्दों को 2038 में ये आज़ादी नसीब होगी जब उस पर से कॉपीराइट का शिकंजा हटेगा.
गांधी के ही सिद्धातों पर चलकर नेल्सन मंडेला महानायक बने.
मंडेला के परिवार को किंग परिवार जैसा फ़ायदा तो नहीं मिला है लेकिन उन्हें मंडेला के नाम और काम के व्यावसायिक इस्तेमाल का पूरा अधिकार है. दूसरों के लिए उस पर सरकारी नियंत्रण है.
जोहांसबर्ग में मंडेला की मूर्ति के साथ आप तस्वीरें खिंचवा सकते हैं लेकिन अगर मीडिया उस तस्वीर का इस्तेमाल करता है तो उसे उसका शुल्क देना होता है.
पूरी दुनिया में बापू की न जाने कितनी मूर्तियां होंगी. फिर सवाल यही है कि क्या चूक गए बापू?
मैं तो बस यही कहूंगा कि अगर आपको अपने आसपास किसी नेता के महान बनने के आसार दिख रहे हों, तो अभी से कॉपीराइट के लिए मोलभाव शुरू कर दें. फ़ायदे में रहेंगे.
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