सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में गठित अंतरिम सरकार के वित्त मंत्री लियाक़त अली ख़ान ने दो फ़रवरी को बजट पेश किया, उसी इमारत में जिसे आज संसद भवन कहा जाता है।
लियाक़त अली ख़ान मोहम्मद अली जिन्ना के ख़ासमख़ास थे। अंतरिम प्रधानमंत्री नेहरू की कैबिनेट में सरदार पटेल, भीमराव अंबेडकर, बाबू जगजीवन राम सरीखे दिग्गज भी थे।
'सोशलिस्ट बजट'
(भारत के बंटवारे पर दिल्ली में एक कॉन्फ्रेंस के दौरान नेहरू, पटेल, कृपलानी, माउंटबेटन के साथ लियाकत अली खान)
लियाक़त अली बंटवारे से पहले मेरठ और मुज़फ्फरनगर से यूपी एसेंबली के लिए चुनाव भी लड़ते थे, वैसे उनका संबंध करनाल के राज परिवार से था।
वे जिन्ना के बाद ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के सबसे बड़े नेता थे। जब अंतरिम सरकार का गठन हुआ तो मुस्लिम लीग ने उन्हें अपने नुमाइंदे के रूप में भेजा। उन्हें पंडित नेहरू ने वित्त मंत्रालय सौंपा था।
लियाक़त अली ख़ान ने अपने बजट प्रस्तावों को 'सोशलिस्ट बजट' बताया पर उनके बजट से देश की इंडस्ट्री ने काफी नाराज़गी जताई। लियाक़त अली ख़ान पर आरोप लगा कि उन्होंने कर प्रस्ताव बहुत ही कठोर रखे जिससे कारोबारियों के हितों को चोट पहुँची।
'हिंदू विरोधी बजट'
(मोहम्मद अली जिन्ना के साथ लियाकत अली खान)
लियाक़त अली ख़ान पर यह भी आरोप लगा कि उन्होंने एक प्रकार से 'हिंदू विरोधी बजट' पेश किया है। उन्होंने व्यापारियों पर एक लाख रुपए के कुल मुनाफे पर 25 प्रतिशत टैक्स लगाने का प्रस्ताव रखा था और कॉरपोरेट टैक्स को दोगुना कर दिया था।
अपने विवादास्पद बजट प्रस्तावों में लियाक़त अली ख़ान ने टैक्स चोरी करने वालों के ख़िलाफ़ कठोर कार्रवाई करने के इरादे से एक आयोग बनाने का भी वादा किया।
कांग्रेस में सोशलिस्ट मन के नेताओं ने इन प्रस्तावों का समर्थन किया। पर सरदार पटेल की राय थी कि लियाक़त अली ख़ान घनश्याम दास बिड़ला, जमनालाल बजाज और वालचंद जैसे हिंदू व्यापारियों के खिलाफ सोची-समझी रणनीति के तहत कार्रवाई कर रहे हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन
(तस्वीर में बाएं से दाए: जमनालाल बजाज, दरबार गोपलदास दसाई, महात्मा गांधी और नेताजी बोस)
ये सभी उद्योगपति कांग्रेस से जुड़े थे। ये कांग्रेस को आर्थिक मदद देते थे।
घनश्याम दास बिड़ला और जमनालाल बजाज तो गांधी जी के करीबियों में थे। बिड़ला ने कुछ अन्य उद्योगपतियों के साथ मिलकर सन् 1927 में 'इंडियन चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इन्डस्ट्री' की स्थापना की थी। बिड़ला स्वदेशी और स्वतंत्रता आंदोलन के कट्टर समर्थक थे और महात्मा गांधी की गतिविधियों के लिए धन उपलब्ध कराने के लिए तत्पर रहते थे।
ज़ाहिर है, लियाक़त अली के बजट का असर मुसलमान और पारसी व्यापारियों पर भी होता, लेकिन यह तो सच्चाई थी कि बिजनेस पर हिंदुओं का वर्चस्व तो तब भी था ही।
अंतरिम सरकार
(1946 की अंतरिम सरकार में शामिल नेता)
टाटा और गोदरेज जैसे पारसियों के समूह तब भी थे। मुस्लिम समाज से संबंध रखने वाला एक बड़ा समूह फार्मा सेक्टर का सिप्ला था। इसके संस्थापक केए हामिद थे। वे भी गांधी जी के भक्त थे। उस दौर में सिप्ला के अलावा शायद कोई बड़ा समूह नहीं था जिसकी कमान मुस्लिम मैनेजमेंट के पास हो।
लियाक़त अली पर ये भी आरोप लगे कि वे अंतरिम सरकार में हिंदू मंत्रियों के खर्चों और प्रस्तावों को हरी झंडी दिखाने में खासा वक्त लेते हैं। सरदार पटेल ने तो यहां तक कहा था कि वे लियाक़त अली ख़ान की अनुमति के बगैर एक चपरासी की भी नियुक्त नहीं कर सकते।
बंटवारे के बाद
(लियाक़त अली ख़ान की पत्नी गुल-ए-राना मूलत: हिन्दू परिवार से ही थीं)
लियाक़त अली ख़ान के बचाव में भी बहुत से लोग आगे आए थे। उनका तर्क था कि वे हिंदू विरोधी नहीं हो सकते क्योंकि उनकी पत्नी गुल-ए-राना मूलत: हिन्दू परिवार से ही थीं। ये बात दीगर है कि उनका परिवार एक अरसा पहले ईसाई हो गया था।
लियाक़त अली ख़ान बजट पेपर अपने हार्डिंग लेन (अब तिलक लेन) वाले घर से लेकर सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली (अब संसद) भवन गए थे। उनका आवास देश के बंटवारे के बाद भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त के सरकारी आवास के रूप में इस्तेमाल होता है।
बेनजीर की हत्या
(जिस मैदान में लियाकत अली की हत्या हुई थी, उसी मैदान में दशकों बाद बेनजीर भुट्टो भी मारी गईं)
लियाक़त अली की 1951 में रावलपिंडी की एक सभा में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। हत्यारे को तब ही सुरक्षाकर्मियों ने मार डाला था जो एक अफ़गान नागरिक था। जिस मैदान में लियाक़त अली ख़ान की हत्या हुई थी, उसी मैदान में दशकों बाद बेनजीर भुट्टो भी मारी गईं।
स्वतंत्र भारत का पहला बजट 26 नवंबर, 1947 को आर के षणमुगम शेट्टी ने पेश किया था। पर ये एक तरह से देश की अर्थव्यवस्था की समीक्षा ही थी। इसमें किसी नए टैक्स का प्रस्ताव नहीं रखा गया। कारण ये था कि 1948-49 का बजट पेश होने में मात्र 95 दिन बचे थे।
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