आज के दौर में करियर में तरक़्क़ी के लिए आप के पास आईक्यू के साथ-साथ सीक्यू भी होना चाहिए। चकरा गए न! मगर हमने ये बात आप को चौंकाने के लिए नहीं नई चुनौतियों के लिए तैयार करने के लिए बताई है। आज दुनिया भर में कंपनियां बैंक या फिर फौजें भर्ती से पहले लोगों के सीक्यू CQ की पड़ताल करती हैं।

बड़ा सवाल आप के ज़ेहन में होगा कि आख़िर ये सीक्यू क्या बला है। तो चलिए आप को सीक्यू से रूबरू कराते हैं।

जब आप किसी और देश, समाज या समुदाय के लोगों से मिलते हैं, तो उनकी ज़बान बोलने की कोशिश करते हैं। उनके जैसे हाव-भाव अपनाते हैं। उनसे क़रीबी राब्ता बनाने की आप की ये कोशिश कल्चरल इंटेलिजेंस या सीक्यू कहलाती है।

आप अपनी बॉडी लैंग्वेज बदलकर, सामने वाले के हाव-भाव की नक़ल कर के उसके जैसा दिखने की जो कोशिश करते हैं। वो अक्सर सामने वाले पर गहरा पॉज़िटिव असर डालती है। ये बहुत से करियर में काम का फ़न है।

इसीलिए आज की तारीख़ में बैंक हों या दुनिया भर में तैनात होने वाली सेनाएं, सब, भर्ती के दौरान लोगों में इस हुनर के होने, न होने की पड़ताल करती हैं।

सामाजिक वैज्ञानिक डेविड लिवरमोर लिखते हैं, 'आज दुनिया में सरहदों की पाबंदियां टूट रही हैं। ऐसे में आप की कामयाबी के लिए आईक्यू से ज़्यादा ज़रूरी है सीक्यू'।

वैज्ञानिक हों या अध्यापक या फिर बैंक में काम करने वाले, सब के पास ये हुनर होना ज़रूरी है। क्योंकि ऐसे करियर वाले, बहुत से लोगों के संपर्क में आते हैं। उनसे बात करते हैं। ये उनके काम के लिए ज़रूरी होता है।

 


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अगर किसी का सीक्यू कम है, तो वो सब को अपने ही नज़रिए से देखने की कोशिश करेगा। मीटिंग में किसी की ख़ामोशी को वो बोरियत समझेगा। हवाई उड़ानों में कई बार बातचीत न समझ पाने से उड़ानें मुश्किल मे पड़ चुकी हैं। कई हादसे भी इस वजह से हो चुके हैं।

जिसका सीक्यू ऊंचे दर्जे का होता है, वो किसी की ख़ामोशी का ग़लत मतलब नहीं निकालेगा। बल्कि ये समझने की कोशिश करेगा कि आख़िर इसकी वजह क्या है। अगर कोई बोलने में संकोच करता है, तो अच्छे सीक्यू वाला शख़्स उसे बोलने का मौक़ा देगा।

बहुत से ऐसे रिसर्च हुए हैं, जिनके ज़रिए विदेश में जाकर काम करने वालों के तरीक़ों को समझने की कोशिश की गई है। जैसे कि विदेश में काम करने वाले, कैसे बदले हुए माहौल और सोसाइटी में तालमेल बैठाते हैं। वो नई

ज़बान सीखने की कितनी कोशिश करते हैं। वो खान-पान और लोगों से मिलने-जुलने को लेकर क्या करते हैं?

जिनका सीक्यू ज़्यादा होता है, वो जल्दी से बदले हुए माहौल से तालमेल बना लेते हैं। उनके दोस्त भी जल्दी बन जाते हैं।

सीक्यू के ज़रिए लोगों के काम-काज की परख भी होती है। जैसे कि आप अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कितना माल बेच लेते हैं। लोगों से कैसे बातचीत कर के अपनी शर्तों पर समझौते के लिए राज़ी कर लेते हैं। आप किसी टीम की अगुवाई कैसे करते हैं?

 


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तीन तरह की बुद्धिमानी होती है-

2011 की एक स्टडी के मुताबिक़, आईक्यू, इमोशनल इंटेलिजेंस और सीक्यू, ये तीन तरह की बुद्धिमत्ता होती है। ये तजुर्बा स्विस मिलिट्री एकेडमी में किया गया था। जहां पर काम करने वाले, अलग-अलग देशों से आए सैनिकों की मदद कर रहे थे। एक दूसरे के साथ काम कर रहे थे।

जिसके पास ये तीनों तरह की अक़्लमंदी भरपूर तादाद में है, वो तो सबसे अच्छा काम कर ही रहा था। मगर, इनमें भी जिसका सीक्यू ज़्यादा था, वो तालमेल बनाने की रेस में सबसे आगे निकल गया था।

ज़ाहिर है कि जिनका सीक्यू ज़्यादा होगा, उन्हें विदेश में नौकरी मिलने में आसानी होगी। नौकरी मिलने के बाद उनकी तरक़्क़ी भी तेज़ी से होगी।

यही वजह है कि बहुत सी कंपनियां, मुलाज़िम रखने से पहले लोगों के सीक्यू की पड़ताल कर रही हैं।

स्टारबक्स, ब्लूमबर्ग और अमरीका की मिशिगन यूनिवर्सिटी, मिशीगन इंटेलिजेंस सेंटर की मदद से भर्तियां करनी शुरू की हैं। ये सेंटर लोगों का सीक्यू जांचने में मदद करता है।

डेविड लिवरमोर इस सेंटर के प्रमुख हैं। वो कहते हैं कि लोग सीख कर अपना सीक्यू बेहतर कर सकते हैं। ख़ुद के तजुर्बे से बड़ा सबक़ कोई नहीं हो सकता। किसी ख़ास देश की सभ्यता को समझना अलग बात है। अलग-अलग समाज और देश के लोगों के साथ अच्छा तालमेल बनाना अलग बात है। इसके लिए ख़ास तरह का हुनर चाहिए। वो सीखते हुए विकसित किया जा सकता है।

जो लोग, तमाम जगहों पर वक़्त गुज़ारते हैं, उनके लिए ऐसा कर पाना आसान होता है। जिन लोगों के लिए अपना सीक्यू बेहतर करना मुश्किल है। यानी जो लोग अलग-अलग देशों और समुदायों के लोगों से तालमेल नहीं बैठा पाते हैं, उनके लिए तमाम कोर्स भी शुरू हो गए हैं। इसकी कोचिंग भी होती है। ऐसे ही कोर्स की मदद से बहुत से लोग तीन महीने में ख़ुद को अरब देशों के माहौल में अच्छे से ढालते देखे गए हैं। वहीं बिना सीक्यू ट्रेनिंग के वहां जाने वाले लोगों को तालमेल बैठाने में 9 महीने या ज़्यादा वक़्त लग गया।

लेकिन, सब लोग सीख ही लें ये भी ज़रूरी नहीं। बहुत से लोग कई देशों में रहने के बावजूद, किसी भी देश की सभ्यता, ज़बान, रहन-सहन या संस्कृति को नहीं समझ पाते हैं। ये लोग ट्रेनिंग लेने के लिए भी नहीं तैयार होते हैं।

जानकार कहते हैं कि इसकी वजह मानसिकता होती है। ये लोग अपने आप पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा करते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं कि उन्हें बदलाव से ही दिक़्क़त होती है। उन्हें लगता है कि जो है वही सही है। कई लोग बहुत मुश्किलों का सामना कर के आगे बढ़े होते हैं। वो समझते हैं कि यही एक तरीक़ा है, आगे बढ़ने का। किसी ट्रेनिंग से कुछ नहीं होने वाला।

ऐसे लोग अलग-अलग देशों में नौकरी के लिए जाते हैं, तो उन्हें आगे बढ़ने में बहुत परेशानी होती है।

वैसे सीक्यू को लेकर इतनी चर्चा के बावजूद, इस बारे में बहुत से लोगों को जानकारी नहीं है। न ज़्यादा रिसर्च है और न ही ट्रेनिंग का इंतज़ाम। जानकार मानते हैं कि सीक्यू बढ़ाने के मोर्चे पर अभी बहुत काम किए जाने की ज़रूरत है।

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Posted By: Chandramohan Mishra