महिलाओं का मर्दानापन या कुदरत की नाइंसाफ़ी
1978 के बैंकॉक एशियन गेम्स में भारत की एक स्प्रिंटर को जेंडर टेस्ट में फेल हो जाने के कारण खेलों से बाहर किया गया था.नौबत यहाँ तक आ गई थी की वो खिलाड़ी होटल की खिड़की से कूदकर आत्महत्या करना चाहती थीं.लेकिन वहाँ मौजूद कोच की सूझबूझ और कुछ अन्य खिलाड़ियों की मदद से उस एथलीट को बीमारी के बहाने वापस भारत भेज दिया गया और किसी की भनक तक नहीं लगी.नॉरिस प्रीतम का विश्लेषण
लेकिन यह टेस्ट महिलाओं को बड़ा क्रूर लगता था और लगातार इसका विरोध होता रहा. पर यह तय करना भी ज़रूरी था कि महिला वर्ग में सिर्फ पूर्ण रूप से महिला ही भाग लें.फिर भी विरोध के कारण अटलांटा ओलम्पिक के बाद इस टेस्ट को बंद कर दिया गया. लेकिन जब दक्षिण अफ़्रीकी एथलीट कास्टर सेमेन्या का मामला सामने आया तो एक बार फिर लिंग टेस्ट की बात उठी.
लेकिन शारीरिक परीक्षण के बदले महिलाओं के हायराइन्द्रोजैनिस्म को जांचा गया जिससे महिलाओं के शरीर में टेस्टोस्टेरॉन स्तर को मापा जा सके.समानता को तरजीह
उनका इशारा उन महिलाओं की ओर था जो जानबूझ कर दवा के जरिए अपना टेस्टोस्टीरॉन स्तर ज़्यादा कर लेती हैं जिससे उन्हें बाक़ी महिलाओं के मुकाबले ज़्यादा शक्ति मिलती है. यह बेईमानी है और इसी को डोपिंग करार दिया जाता है. और इसी लिए इस नियम की ज़रूरत भी पड़ी.किड को भरोसा है कि वो दुती चाँद का केस जीतेंगे. भले ही उसमें लंबा समय लग जाए.