दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन यानी सार्क की सोच को चीन में लोग बहुत प्रभावी नहीं मानते हैं.


आम तौर पर चीनी विश्लेषक और अर्थशास्त्रियों की जमात ये मानती है कि सार्क का उस तरह से विकास नहीं हुआ जिस तरह से आसियान या फिर यूरोपीय यूनियन जैसे दूसरे मंचों का हुआ है.सार्क इन सबसे पीछे रह गया है. इसमें शामिल देशों के बीच आपसी कारोबार उनके कुल कारोबार का पांच फ़ीसदी भी नहीं होता है.सार्क एक आर्थिक सहयोग का मंच है. आर्थिक मंच एक तरह से राजनीतिक संबंधों को मज़बूत करने का मंच भी होता है.दोनों इस क्षेत्र के शीर्ष के दो देश हैं, लेकिन दोनों के बीच कारोबार सामान्य तौर पर नहीं होता.चीन एक आब्जर्वर देश के तौर पर सार्क से 2005 में जुड़ा है, लेकिन आब्जर्वर के तौर पर उसे सार्क से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं हो सकती.
वैसे ये चीन के लिए बेहतर भी है क्योंकि वह सार्क के मंच का इस्तेमाल सार्क देशों से अपने संबंधों को बढ़ाने के लिए करता है.पूर्ण सदस्यता का असरचीन सार्क का पूर्ण सदस्य बनना चाहता है क्योंकि इससे ना केवल चीन को फ़ायदा होगा बल्कि सार्क देशों को भी होगा.


चीन सार्क की सदस्यता के लिए पात्रता भी पूरी करता है. चीन का सार्क के आठ सदस्य देशों में से पांच के साथ कारोबारी रिश्ते हैं.चीनी अधिकारी इसलिए सार्क प्लस वन देश या फिर सार्क में डायलॉग पार्टनर की भूमिका के लिए दबाव डालते रहे हैं, क्योंकि चीन सार्क के मंच पर बड़ी भूमिका निभाना चाहता है.मौजूदा समय में चीन का सार्क का पूर्ण सदस्य देश बनना मुश्किल है. लेकिन सार्क प्लस या सार्क प्लस वन जैसी व्यवस्था के ज़रिए चीन जुड़ सकता है.लेकिन एक दिन चीन, भारत और पाकिस्तान की तरह ही सार्क का पूर्ण सदस्य देश होगा, यह काफ़ी बेहतर होगा.

Posted By: Satyendra Kumar Singh