2014 का लोकसभा चुनाव सचमुच कई मायनों में आश्चर्यजनक परिणाम देने वाला साबित हुआ. किसी भी चुनाव विश्लेषक राजनीतिक दल को यह अंदाजा शायद ही रहा होगा कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को 80 में से 71 सीटें मिलेंगी.


यह अनुमान आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भाजपा को भी शायद ही रहा हो. 2014 के लोकसभा चुनाव में दूसरा आश्चर्यजनक परिणाम उत्तर प्रदेश में ठोस दलित मतों की आधार वाली बहुजन समाज पार्टी और मायावती के प्रभाव का इतना क्षीण होना रहा है.बसपा को इस चुनाव में एक भी सीट नहीं हासिल हुई. आख़िर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर क्या हुआ कि बसपा जैसे दल की यह गत हुई?1. आवारा वोटलहर और सुनामी की बात करते हुए हमें यह समझना होगा कि लहर होती क्या है? वास्तव में लहर तब आती है जब ‘आवारा वोट' यानी बहने वाले वोट एक बड़ी संख्या किसी असर में बह कर वोट करते हैं.


पिछले चुनावों के अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि उनकी संख्या 4-5 प्रतिशत होती है, जो जाति, धर्म और वर्ग के परे जाकर जिसकी हवा होती है, उसकी तरफ बह जाते हैं.

अगर इस चुनावी अनुभव के आधार पर देखा जाए तो भाजपा के 2009 के मतों से इस बार 25 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है. उत्तर प्रदेश में 2009 में उसे 17.5 प्रतिशत वोट और 10 सीटें मिली थी. इस बार 42.3 प्रतिशत और 71 सीटें मिली हैं. आखिर यह 25 प्रतिशत वोट भाजपा को कहां से मिले?

ब्राह्मण वोट बड़ी संख्या में भाजपा की ओर गए और दलितों में ‘अति दलित’ जातियां भी उधर गईं. दरअसल तक़रीबन 60 अति दलित जातियों को लगभग 30 वर्ष के बहुजन आन्दोलन की प्रक्रिया में न तो आवाज़ मिली, न पहचान, न ही लालबत्ती और और न सत्ता.अति दलित और अति पिछड़ी जातियों के इस अंतर्विरोध को समझते हुए आरएसएस उनके बीच पिछले कई सालों से सक्रिय थी, जिसे मैंने अपनी पुस्तक ‘फैसिनेटिंग हिन्दुत्वः सैफ़रन पॉलिटिक्स और दलित मोबिलाइजेशन (2009, सेज) में डाक्यूमेन्ट करने की कोशिश की थी.दलितों के बीच सामाजिक समरसता अभियान के तहत उन्हें जोड़ने का काम, साथ ही चुनावी प्रचार में उन तक विशेष रूप से पहुंचने की रणनीति आरएसएस ने अपनाई. इन मतों का बहाव इस बार भाजपा के पक्ष में हुआ है.4. समाज का स्वरूप बदलानई आर्थिक नीति का विस्तार, बाज़ार का फैलाव, उपभोक्तावादी समूहों का विकास और रुपए की त्वरित आवाजाही जो यूपीए शासन में बढ़ी, उसने उत्तर प्रदेश के गांवों और शहरों को बदला. अच्छे जीवन की चाह, सुख सुविधा और क्रय की शक्ति बढ़ाने की आकांक्षा बढ़ी.
टीवी, मोबाइल, इंटरनेट शहरों में तो फैले ही गांवों में भी इनका आश्चर्यजनक फैलाव हुआ. इस ‘आकांक्षापरक समाज’ की बदलती चाहतों और मनोवृतियों को बसपा समझ नहीं पाई और पारंपरिक अस्मिता परक गोलबंदी पर ही केंद्रित रही.दलितों में एक मध्य वर्ग विकसित हुआ है, जो सेल्फी खींचता है. जो फेसबुक, ट्विटर और प्रिंट मीडिया में भी अपनी राजनीति की मौजूदगी चाहती है. बसपा अपने ऐसे सामाजिक ओपिनियन मेकर वर्ग से कोई संवाद नहीं कर पाई. उसे एक नई भाषा, नए संचार माध्यम मीडिया और प्रिंट मीडिया से अपनी मौजूदगी बढ़ानी चाहिए थी.5. प्रचार में यूपी की अनदेखीमायावती ने पूरे देश में अपने उम्मीदवार खड़े किए थे. वे कई राज्यों में प्रचार कर रही थीं.साथ ही भाजपा ने जातीय समीकरण मज़बूत किया और पटेल, कर्मी और कुशवाहा जैसी पिछड़ी जातियों के साथ साथ भुर्जी, चौरसिया, निषाद, तेली जैसी अति पिछड़ी जातियों और अति दलितों के वोटों का जातीय और हिन्दुत्व परक ध्रुवीकरण किया.नरेंद्र मोदी के पिछड़ा कार्ड और अमित शात के हिन्दुत्व कार्ड ने साथ साथ चलकर एक शक्तिवान चुनावी हवा का निर्माण किया. इसके तहत सपा और बसपा के पारंपरिक वोटर भी टूट कर भाजपा को ओर गए.8. आगे क्या करें
अब प्रश्न है कि बसपा क्या करें? राज्य विधानसभा के चुनाव में 2017 में होने हैं. बसपा को अपनी प्रवृत्ति बदलते हुए फिर से आंदोलनात्मक कारवाईयों से जुड़ना होगा.मायावती को अपने दलित और गैर दलित समर्थकों से सीधा ‘कनेक्ट’ विकसित करना होगा. उन्हें समझना है कि लोग बदल रहे हैं, गांव बदल रहे हैं, दलित बदल रहे हैं.उन्हें नए संचार साधनों से संबोधित कर उनकी नई आकांक्षाओं से अपनी राजनीति को जोड़ना होगा. आज की ‘एयर टाईम’ पॉलिटिक्स में भी अपना दख़ल बढ़ाना होगा, जिसके जादूगर फिलहाल नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल हैं.

Posted By: Satyendra Kumar Singh