हाल में संपन्न हुए चुनावों में भारत के चुनावों में विदेश नीति के मुद्दे ज़्यादा चर्चा में नहीं रहे भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेंद्र मोदी ने अपनी ज़्यादातर रैलियों और भाषणों में सुशासन और आर्थिक विकास पर ज़ोर दिया.


कुछ ही मौकों पर उन्होंने चीन, पाकिस्तान या बांग्लादेश का ज़िक्र किया.जब उन्होंने ज़िक्र किया, तब भी उनके बयान साफ़ और कड़े थे. उन्होंने कश्मीर में सीमा पर होने वाली झड़पों का मज़बूती से जवाब न देने के लिए कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की आलोचना की और चीन को चेतावनी दी कि भारत अपनी क्षेत्रीय संप्रुभता की रक्षा करेगा.इन मुद्दों के अलावा उन्होंने बांग्लादेश से ग़ैर क़ानूनी तौर पर आने वाले लोगों को लेकर भी आपत्ति ज़ाहिर की.इन बेहद भावनात्मक मुद्दों के अलावा उन्होंने विदेश नीति को लेकर सिर्फ़ एक बार बात की, जब उन्होंने जापान की तारीफ़ की और भारत की आर्थिक विदेश नीति को मज़बूत करने के संदर्भ में जापान से रिश्तों को मज़बूत करने की ज़रूरत बताई थी.इस वक़्त, मोदी की विदेश नीति की संभावित दिशा को समझने के लिए यही बयान और टिप्पणियां उपलब्ध हैं.


जब तक वो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश मंत्री जैसे पदों को लेकर अपनी पसंद नहीं बता देते हैं तब उनकी विदेश नीति की प्राथमिकता को लेकर कुछ और अनुमान लगाए जा सकते हैं.दंगों में 1,000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे जिनमें से ज़्यादातर मुसलमान थे.

मोदी ने हमेशा आरोपों से इनकार किया है और उन पर किसी तरह का मामला दर्ज नहीं है.व्यापारिक और निवेश संबंधी मामलों में अमरीका की अहमियत को देखते हुए ये अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले वक़्त में मोदी अपनी खीझ से उबरेंगे और अमरीका के साथ मिलकर काम करेंगे.हालांकि ये संभव है कि वो ये संबंध बढ़ाने के अमरीका के इशारों का जवाब देने में कोई ख़ास जल्दबाज़ी दिखाने की पहल न करें.कड़ा रुख़?भारत के अहम पड़ोसियों जैसे चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान से उसके संबंध कैसे होंगे? ये सभी देश अलग-अलग स्तर पर भारत से चिढ़े हुए हैं.इन मसलों पर एक स्पष्ट आकलन किया जा सकता है.हालांकि चीन के साथ व्यापार के मुद्दे अहम रहेंगे, इस बात की संभावना है कि वो चीन के साथ सीमा विवाद में कड़ा रुख़ अपनाएंगे, रक्षा ख़र्च में बढ़ोतरी करेंगे और हिमालयी सीमा पर होने वाली 'घुसपैठ' को कम बर्दाश्त करेंगे.उनका कड़ा रुख़ उनके उन समर्थकों के उस अहम हिस्से को अपील करेगा जो महसूस करता है कि भारत को अपने झगड़ालू और दबंग पड़ोसियों के सामने मज़बूती से खड़ा होने की ज़रूरत है.

इसी तरह से, इस बात की भी संभावना है कि अगर भारत की धरती पर हुए किसी भी हमले के तार स्पष्ट तौर पर पाकिस्तान से जुड़े दिखाई देते हैं तो वो पाकिस्तान को साफ़ चेतावनी देने से नहीं हिचकिचाएंगे.उनको सुरक्षा और विदेश नीति के मसलों पर सलाह देने वाले कई लोग पाकिस्तान को संबंध में अपने तेज़तर्रार विचारों के लिए जाने जाते हैं.इसके अलावा, भारतीय जनता का एक बड़ा हिस्सा, वो उनके समर्थक हों या न हों, इस बात से हताश है कि भारत उकसावों और चरमपंथी हमलों का जवाब देने में अक्षम है.'भारत जवाब देने में ढीला'क्या उनका काम बांग्लादेश से अवैध प्रवासियों के आने के विवादास्पद मुद्दे पर उनकी बातों जैसा ही होगा?वो इस तरह के प्रवास को रोकने के लिए कड़ी नीतियां अपना सकते हैं.हालांकि भारत के संघीय ढांचे की वजह से उन्हें ये जल्दी ही पता चल जाएगा कि नई नीतियां राज्यों के क्षत्रपों पर निर्भर करेंगी, जो अपने विशेषाधिकारों को गंभीरता से लेते हैं.ऐसा होने की सबसे ज़्यादा संभावना पश्चिम बंगाल में है, जहां मुख्यमंत्री ममता बनर्जी केंद्र सरकार की नीतियों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देने के लिए जानी जातीं हैं.
मोदी अपनी ज़्यादातर ऊर्जा और कोशिशें घरेलू राजनीति पर लगा सकते हैं लेकिन वो जल्दी ही ये सीखेंगे कि दुनिया उनके एजेंडा में अपने तरीके से दख़ल दे सकती है.वो इन मसलों से कैसे निपटेंगे इससे उनकी राष्ट्रीय और संभवत: अंतरराष्ट्रीय काबिलियत की परख होगी.(सुमित गांगुली अमरीका के ब्लूमिंगटन की इंडियाना यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं.)

Posted By: Satyendra Kumar Singh