संस्कृत विश्वविद्यालय में करोड़ों के गबन के आरोप में दो अरेस्ट
वाराणसी (ब्यूरो)। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में दुर्लभ पांडुलिपियों एवं ग्रंथों के मुद्रण, प्रकाशन के नाम पर करोड़ों के गबन के दो आरोपितों को शुक्रवार को आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्ल्यू) ने गिरफ्तार कर लिया। दोनों ङ्क्षप्रङ्क्षटग प्रेस संचालक हैं। इस मामले में अन्य आरोपितों की तलाश की जा रही है.
घेराबंदी कर पकड़ा ईओडब्ल्यू वाराणसी के निरीक्षक सुनील कुमार वर्मा के अनुसार इस मामले में आरोपित शारदा ङ्क्षप्रङ्क्षटग प्रेस के संचालक जगतगंज निवासी दिवाकर त्रिपाठी और तारा ङ्क्षप्रङ्क्षटग प्रेस के संचालक लक्सा निवासी रवि प्रकाश पांड्या के सिगरा थाना क्षेत्र के सिद्धगिरीबाग में मौजूद होने की जानकारी मिली। ईओडब्ल्यू की टीम में शामिल सब इंस्पेक्टर संजय सोनक, हेड कांस्टेबल शशिकांत ङ्क्षसह, विनीत पांडेय और रामाश्रय ङ्क्षसह, रोहित ङ्क्षसह ने घेरेबंदी करके दोनों को गिरफ्तार कर लिया। 11 के खिलाफ केस दर्जशासन की ओर से संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय को वित्तीय वर्ष 2000-2001 से 2009-10 के बीच दुर्लभ पांडुलिपियों, ग्रंथों के मुद्रण, प्रकाशन के लिए दस करोड़ 20 लाख 22 हजार रुपये आवंटित किए गए थे। आरोप है कि विश्वविद्यालय के प्रकाशन संस्थान के तत्कालीन निदेशक हरिश्चंद्र मणि त्रिपाठी ने वित्त विभाग के अधिकारियों, ङ्क्षप्रङ्क्षटग प्रेस मालिकों और अन्य लोगों की मिलीभगत से लगभग 5.90 करोड़ रुपये का फर्जी भुगतान दिखाकर गबन कर लिया। इस संबंध में दिसंबर 2014 में ईओडब्ल्यू ने चेतगंज थाने में 11 लोगों के खिलाफ केस दर्ज कराया था.
कुलपति ने की थी शिकायत ईओडब्ल्यू की जांच के दौरान पता चला कि विश्वविद्यालय प्रकाशन विभाग की ओर से लगभग 3.67 करोड़ रुपये का वैध मुद्रण कराया गया था। लगभग 5.90 करोड़ रुपये विभिन्न ङ्क्षप्रङ्क्षटग प्रेस के मालिकों को साजिश के तहत बिना मुद्रण कराए ही भुगतान कर दिया गया। शेष धनराशि लगभग 63 लाख रुपये को अंतिम वित्तीय वर्ष 2010 में शासन को वापस कर दिया गया। वर्ष 2010 में तत्कालीन कुलपति वेम्पटी कुटुम्ब शास्त्री के कार्यालय में इनके हस्ताक्षर की फर्जी मुहर प्राप्त होने और दुरुपयोग होने की आशंका से मामला प्रकाश में आया। कुलपति ने इसकी शिकायत शासन से की थी। मामले की जांच ईओडब्ल्यू वाराणसी को सौंपी गई थी। जांच में पता चला कि प्रेसों को भुगतान करने में किसी भी कुलपति से स्वीकृति प्राप्त नहीं की गई। उनके फर्जी हस्ताक्षर की मुहर बनवाकर प्रयोग किया गया।