मन में था विश्वास, हुई कामयाब
सफलता के लिए प्रयास तो बहुत से लोग करते हैं पर सफल कुछ ही हो पाते हैं। खासकर महिलाओं के लिए तो डगर और भी कठिन हो जाती है। खुद की परिस्थितियों के साथ ही सामाजिक ताने-बाने से भी उन्हें दो-दो हाथ करना पड़ता है। तब जाकर सफलता उनके कदम चूमती है। पर कुछ महिलाओं को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पाती है। आज हम ऐसी ही दो महिलाओं की कहानी साझा कर रहे हैं। जिसमें एक ने सबकुछ खिलाफ होने के बाद भी सफलता की कहानी गढ़ी तो एक महिला ने प्रयास तो बहुत किया पर स्थितियां बहुत नहीं बदल पायी। ये हैं असली फाइटर वूमेन।
संघर्ष को किया एंज्वॉयकहते हैं दृढ़ इच्छा शक्ति और किसी चीज को पाने का जुनून हो तो हर मंजिल आसान हो जाती है। ऐसी ही हैं हमारे शहर की सीओ स्नेहा तिवारी। अपनी मेहनत और लगन के दम पर सफलता पाने वाली स्नेहा हर उस लड़की की प्रेरणा हैं जो परिस्थितियों से हथियार डाल देती हैं। स्नेहा ने ये सफलता एक रात में नहीं पाया। बल्कि संघर्षो की हजारों रातें और दिन खपाये। चुनार के मध्यवर्गीय परिवार की स्वेता तिवारी की शुरुआती पढ़ाई गांव के प्राइमरी स्कूल में हुई। लड़की थीं पढ़ने में भी होशियार थी तो कई बार गांव की रूढि़वादी सोच और ताने-तंज से कई बार परेशानी हुई। पर फैमिली सपोर्ट ने उन्हें हर कदम पर सहारा दिया। चुनार स्थित जीजीआईसी से फर्स्ट डिवीजन में इंटर पास करने के बाद वह बीएचयू आ गयीं। ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान उन्हें स्टूडेंट ऑफ ईयर चुना गया। इसके बाद बीएड किया और सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए इलाहाबाद चली गयीं। यहां भी उन्हें कई तरह की परेशानियां झेलनी पड़ी। पैसे के अभाव में उन्होंने सेल्फ स्टडी की। मेहनत और विश्वास रंग लायी। स्वेता तिवारी ने उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की पीसीएस-2012 की परीक्षा पास की। रैंकिंग के हिसाब से उन्हें डिप्टी एसपी का पद मिला। नौकरी में आने के बाद भी इन्हें कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पर सबसे जूझते हुए लगातार आगे बढ़ रही हैं। इन्हीं की मेहनत के बदौलत बालिका सुरक्षा अभियान में वाराणसी को पहला स्थान मिला। लड़कियों की शिक्षा के लिए अपने गांव में लाइब्रेरी खोलना चाहती हैं जिसमें प्रतियोगी परीक्षा से संबंधित सभी बुक होंगे।
ऊंच-नीच के फर्क को नहीं समझारीवा के राज परिवार में जन्मी रश्मिी सिंह बचपन से ही काफी प्रतिभाशाली थीं। पढ़ाई के साथ सामाजिक कार्यो में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती थीं। राज परिवार के विरोध के बावजूद गरीबों और अछूतों की मदद में पीछे नहीं रहतीं। इसके लिए कई बार पिता के गुस्से को भी झेलना पड़ा। लेकिन मदद का सिलसिला जारी रहा। पढ़ाई पूरी होने के बाद वाराणसी में काफी सम्पन्न डिप्टी साहब के परिवार में उनकी शादी हो गयी। यहां भी उन्होंने महिलाओं के उत्थान के लिए काम शुरू कर दिया। लड़कियों को पढ़ाने में आर्थिक मदद भी की। महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई कार्यक्रम चलाए। रोजगार के लिए आर्थिक मदद भी की, लेकिन रूढि़वादी मानसिकता के लोगों ने इनके मिशन को प्रभावित किया। परेशान होकर अपने पति के साथ मिर्जापुर चली गयीं। वहां आदिवासी और झोपड़ी में रहने वाली महिलाओं के विकास पर काम किया। करीब दस साल तक निरंतर प्रयास किया, लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिली। वह कहती हैं कि पूर्वाचल की महिलाओं में प्रतिभा की कमी नहीं है, लेकिन पुरुष समाज से आज भी वह प्रभावित हैं। पति की सेवा और बच्चों का लालन-पालन ही उनका जीवन है।