बदलते जमाने में भोले की नगरी के लोगों के अंदर खत्म हुआ बनारसीपन होली के दस दिन पहले से ही अर्थी सजाकर शुरू हो जाती थी हुल्हड़बाजी सिर पर मटका रख फोड़ देते थे रंग से सराबोर हो जाते थे लोग गली-मोहल्लों में होलियारों की टोली गजब का हुड़दंग मचाती थी

वाराणसी (ब्यूरो)'कोई न बोली आ गयल हौ होली जोगीरा सारारÓ अब यह मौज-मस्ती, हुल्हड़बाजी, ढौलबाजी, होली के पर्व पर देखन को नहीं मिलती। नहीं तो एक समय था जब रंगों के त्योहार होली के दस या फिर 15 दिन का समय रहता था तभी बनारसी होलियाना मूड में आ जाते थे। होलियारों की टोली की हुल्हड़बाजी गली, मोहल्लों में देखने को मिलती थी। कवि सम्मेलन का मंच सज जाता था। मंच से ही शहर के दिग्गज लोगों को अपने शब्दों की बारिश कर उपनाम दिए जाते थे। होली के पर्व पर यह सब अब बीते दिनों की बात हो गयी। अब सिर्फ होली के दिन ही वह भी दोपहर 12 बजे तक हुल्हड़बाजी देखने को मिलती है। पुरनिए बताते हैं कि अब के बच्चे मोबाईल युग के हो गए हैं। ज्यादातर बनारसी अपने बच्चों को बाहर पढऩे के लिए भेजने लगे हैं ऐसे में होली पर मस्ती की टोली कहां से निकलेगी।

बाबा दरबार से शुरूआत

त्रलोक्य से न्यारी काशी नगरी की होली बाबा विश्वनाथ दरबार से शुरू होती है। रंग भरी एकादशी के दिन सभी लोग बाबा संग अबीर-गुलाल खेलते थे। बाबा सेे अनुमति लेने के बाद सभी होलियाना माहौल में रंग जाते थे। कोई ऐसा मोहल्ला या गली नहीं रहती थी जहां होलियारों की टोली हुल्लड़ न मचाती हो.

अर्थी रख लेते थे पैसे

होलियारों की टोली अर्थी सजाकर सड़क पर रख देती थी। अर्थी पर रंग, अबीर, गुलाल के साथ माला-फूल भी लाद देते थे। अर्थी देखकर हर कोई आने-जाने वाला व्यक्ति पैसा फेंकना शुरू कर देता था। वही पैसा बटोरकर बच्चे हों या बड़े सभी हुड़दंग करते थे। यहीं नहीं मटका में रंग भरकर आने-जाने वालों से कहते थे, भईया ई मटकवा दुकान पर पहुंचा दा, जैसे ही वह व्यक्ति मटका सिर पर रखता था, पीछे से डंडा मारकर फोड़ देते थे। मटका में भरे रंग से वह सराबोर हो जाता था.

बुढ़वा मंगल तक सिलसिला

सुदामा तिवारी उर्फ सांड़ बनारसी का कहना है कि होली पर मस्ती का यह सिलसिला बुढ़वा मंगल तक चलता था। इस दौरान जगह-जगह होली मिलन समारोहों की धूम देखने को मिलती थी। बनारस में सब कुछ बदलने के बाद भी लोग होली की मस्ती में डूबना नहीं भूलते। अब तो होली के दिन पूरे शहर की गलियों व नुक्कड़ों पर होलिका दहन के साथ ही युवकों की टोलियां फाग गाती हुई रात भर हुड़दंग करती हैं। कई स्थानों पर ढोल-नगाड़ों की थाप व भोजपुरी फिल्मी गीतों पर डांस होता है। दूसरे दिन पूरा शहर रंगोत्सव में डूब जाता है.

होली पर निकलती है बारात

दमदार बनारसी का कहना है कि पहले होली पर मस्ती की बात ही कुछ आउर रहल, अब सभी लोग अपने बच्चों को पढऩे के लिए बाहर भेज दिए हैं ऐसे में गली, मोहल्लों में मस्ती की टोली कौन निकालेगा। सारे यूथ अब मोबाईल में व्यस्त रहने लगे हैं। अब सिर्फ होली के दिन कुछ मौज-मस्ती नजर आती है.

और बारात लौट जाती है

मुकीमगंज से बैंड-बाजे के साथ निकलने वाली होली बारात में बाकायदा दूल्हा रथ पर सवार होता है। बारात जब अपने नीयत स्थल पर पहुंचती है तो महिलाएं परंपरागत ढंग से दूल्हे का परछन भी करती हैं। मंडप में दुल्हन भी आती है, लेकिन वर-वधू के बीच बहस शुरू होती है और दुल्हन शादी से इंकार कर देती है। बारात रात में लौट जाती है।

चौस_ी का दर्शन जरूरी

हां एक बात लोग याद रखते हैं होली वाले दिन काशी में चौसट्टी देवी का दर्शन करना लोग नहीं भूलते। हालांकि अब पहले की अपेक्षा लोगों की भीड़ कम हो गई है। बनारस की होली में कभी अस्सी का चर्चित कवि सम्मेलन भी था। मशहूर हास्य कवि स्व। चकाचक बनारसी, पं। धर्मशील चतुर्वेदी, सांड़ बनारसी, बदरी विशाल आदि शरीक होते थे। चकाचक के निधन के बाद अस्सी के हास्य कवि सम्मेलन पर विराम लग गया। इसके बाद इसका स्थान टाउनहाल मैदान में होने वाले हास्य कवि सम्मेलन ने ले लिया। बदलते दौर में वह भी बंद हो गया। कवि सम्मेलन में भी रात तक लोग इसका आनंद लेते थे।

कवि सम्मेलन में ठहाके

सांड बनारसी बताते हैं कि टाउनहाल मैदान (मैदागिन) में अनूठा कवि सम्मेलन होता था, जिसमें बड़ी संख्या में शहर के गणमान्य नागरिक और काव्य प्रेमी जुटते थे। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि यहां सिर्फ गालियों की कविता पढ़ी जाती थी, जिसमें होती थी व्यंग्य की बौछार। यहां श्रोताओं को कोई रचना उत्तम नहीं लगती तो हूट नहीं करते, बल्कि बनारसी अंदाज में कहते थे, भाग-भाग.

Posted By: Inextlive