लेट मैरिज का साइड इफेक्ट यह है कि अब बच्चों में डाउन सिंड्रोम बढ़ रहा है
मेरठ ब्यूरो। जिले में हर माह ऐसे 250 से 300 ऐसे केस सामने आ रहे हैं। जिनमें बच्चा अपनी उम्र के अनुसार मानसिक व शारीरिक विकास नहीं कर पा रहा है। स्वास्थ्य विभाग के अनुसार बच्चों में डाउन सिंड्रोम मिल रहा है।बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास न होने के चलते मानसिक रोग व बाल रोग विशेषज्ञों के पास पेरेंट्स पहुंच रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों में इसका खुलासा हुआ है। विभाग ने ऐसी रिपोर्ट जारी की है जिसमें मेरठ में ही आठ महीने में 1329 बच्चों में डाउन सिंड्रोम की पहचान हो चुकी है। इनमें लड़कियों का प्रतिशत 70 फीसदी है। कई तरह की आधुनिक जांच अब संभव है। प्रसव में ही इसका पता चल जाता है।
शारीरिक व मानसिक विकास धीमा
डॉक्टर्स के मुताबिक कि बच्चों में समय के अनुसार शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पाता है। इससे पेरेंट्स डॉक्टर्स के पास पहुंचते हैं। इस बीमारी में बच्चों का भाषागत, सामाजिक, वृद्धि और फाइव सेंसेशन विकसित होने बहुत कम हो जाते हैं। शारीरिक विकास समान्य बच्चों की तरह ही होता है, जबकि मानसिक विकास अपनी उम्र के बच्चों के कई गुना कम स्तर से होता है। देर से बेबी करने से मुश्किलें
डॉक्टर्स बताते हैं कि बच्चों में डाउन सिंड्रोम की मुख्य वजह अधिक उम्र में डिलीवरी होना है, जब लोग लेट बेबी प्लानिंग करते हैं तो ही ऐसे केस होते हैं। खासतौर से महिलाओं में क्रोमोसोम गड़बड़ाने से दिक्कत अधिक आती है। पुरुष और महिलाओं के क्रोमोसोम मिलाकर जब 46 की जगह 47 हो जाते हैं, तब बच्चों में डाउन सिंड्रोम होता है। ये है डाउन सिंड्रोम डाउन सिंड्रोम को मेडिकल भाषा में ट्राइसोमी-21 के नाम से भी जाना जाता है। ये एक आनुवांशिक विकार है जो क्रोमोसोम की तीसरी कॉपी के उपस्थित होने से हो सकती है। ये है लक्षण मानसिक रोग विशेषज्ञ डॉ। विभा नागर बताती है कि जन्म के समय डाउन सिंड्रोम वाले अधिकांश बच्चों में कुछ विशिष्ट लक्षण आते हैं। चपटा चेहरा, बादाम के आकार की आंखे, उभरी हुई जीभ, हाथों की लकीरें, सिर, कान, उंगलियां छोटी-चौड़ी होती हैं। बच्चों का कद छोटा होता है। पीडि़त बच्चे सामान्य बच्चों से अपेक्षा देर से विकसित होते हैं।पूर्ण उपचार संभव नहीं बाल रोग विशेषज्ञ डॉ। अरूण गुप्ता बताते हैं कि डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चों के लिए पूर्ण उपचार नहीं है। ऐसे बच्चे मानसिक रूप से कमजोर होते हैं। विशेष स्पीच थैरेपी व खास प्रशिक्षण के द्वारा कुछ हद तक सुधारा जा सकता है।
जांच से हो रही पहचान न्यूरो पीडियाट्रिक डॉ। आस्था अग्रवाल जांच की अधिकता से डाउन सिंड्रोम के मामले अब अधिक सामने आ रहे हैं। प्रसव पूर्व अल्ट्रासाउंड और ब्लड टेस्ट के जरिए इस बीमारी की पहचान की जा सकती है। डाउन सिड्रोंम का कोई उपाय नहीं फैलोशिप पीडियाट्रिक डॉ शुभम जैन बताते हैं कि आजकल इस तरह के केस अधिक है, ऐसे में कुछ तकनीक आई है जिनसे पहले ही पता लग जाता है बच्चा नार्मल है या नहीं, इसका कारण अधिक उम्र में डिलीवरी है। डाउन सिंड्रोम का उपाय तो नहीं है, लेकिन ऐसे केस में हम फिजियोथेरेपी, रिहेविलिसेशन, स्पीच थैरेपी के जरिए कुछ सुधार कर सकते हैं। हम मां बाप को समझाते हैं उनका बच्चा नार्मल नहीं है उसे ऐसे ही एसेप्ट करें। कुछ थैरेपी के जरिए सुधार संभव
गाइनोक्लोजिस्ट डॉ। शिखा जैन ने बताया कि आजकल लेट मैरीज हो रही है, इसके चलते लेट डिलीवरी अधिक हो रही हैं, सबसे बड़ा कारण डाउन सिंड्रोम का यही है। ऐसे में डिलीवरी के समय में पता लगाया जा सकता है बच्चा नार्मल है या नहीं, इसकी कई तकनीकी आ चुकी है। लेकिन अगर ऐसा बच्चा होता है तो उसको कुछ थैरेपी के जरिए कुछ हद तक सुधार किया जा सकता है।