कितना अच्छा हो, अगर इको फ्रेंडली हो जाए होलिका दहन
मेरठ (ब्यूरो)। बुराई के नाश और अच्छाई पर जीत के प्रतीक के तौर पर हर साल मनाई जाने वाली होली किसे नहीं भाती। मगर होलिका दहन के दौरान उसमें जलने वाली झाडिय़ां और कचरे से निकलने वाला धुआं शहर के पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचाता है, ये शायद ही कोई जानता हो। ऐसे में जरूरी है कि इस बार होली पर होलिका दहन के दौरान हम अपने शहर के पर्यावरण का ध्यान रखें और लोगों को भी जागरूक करें। दैनिक जागरण आईनेक्स्ट ने शहर के पर्यावरणविदें से बात कर इस समस्या के समाधान का भी विकल्प तलाशने का प्रयास किया।
सेहत को नुकसान
परंपरानुसार होली के दिन कई लोग होलिका में लकडिय़ों के साथ-साथ कई अन्य चीजें भी डाल देते हैं, जिससे प्रदूषण फैलता है। लकडिय़ां भी अलग-अलग तरह की होती हैं। जिनका धुआं भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। होलिका दहन के दौरान प्रयास करना चाहिए कि प्लास्टिक की टूटी वस्तुएं, टायर, लकडिय़ां आदि न जलाएं। विशेषज्ञों का भी मानना है कि प्लास्टिक की वस्तुएं और टायर आदि ठोस कचरे को जलाना पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक है। इसके कारण हवा में हानिकारक पार्टीकुलेट मैटर (पीएम) की मात्रा बढ़ जाती है। हवा में मौजूद ऐसे कण सांस के जरिए इंसानों के शरीर में पहुंचकर सेहत को नुकसान पहुंचाते हैं।
होली में जलते कूड़े से कार्बन-डाई-ऑक्साइड और कार्बन-मोनो-ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें निकलती हैं। इससे सांस से जुड़ी समस्याएं हर उम्र के लोगों में बढ़ रही हैं। हर साल होलिका में प्लास्टिक की बोतलों, टायर और इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान समेत हर तरह का कचरा जलाने की संख्या भी बढ़ती जा रही है। जिसके चलते हवा की गुणवत्ता को खत्म करने वाले और भी कई तरह के टॉक्सिक होलिका के धुएं में शामिल हो जाते हैं। यह टॉक्सिक सांस से जुड़ी बीमारियों को बढ़ावा दे रही हैं। गोबर के कंडे भी
गौरतलब है कि मंदिर से लेकर घरों में होने वाले यज्ञ हवन में भी गाय के गोबर वाले कंडों का इस्तेमाल होता है। इसका उद्देश्य वातावरण के शुद्धिकरण से है। कंडों के जलने पर ऑक्सीजन का उत्सर्जन होता है, जिससे वातावरण दूषित नहीं होता है। होलिका दहन में कंडों को जलाने की परंपरा धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। ऐसे में होलिका में गोबर के कंडे यानी उपले, सूखी लकडिय़ों के उपयोग से कुछ बेहतर है।
बायोडिग्रेडेबल वेस्ट सुधारेगा पर्यावरण
होलिका दहन को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए गोबर से बने कंप्रेस्ड वुड का प्रयोग करना बेहतर विकल्प साबित हो सकता है। पर्यावरणविद् गोबर के इस कंप्रेस्ड वुड को पर्यावरण के लिए बेहतर बताते है। पर्यावरणविदें की मानें तो इनको होलिका दहन में प्रयोग करने से नाइट्रोजन-डाई-ऑक्साइड, सल्फर-डाई-ऑक्साइड व कार्बन-डाई-ऑक्साइड जैसी विषक्त गैसों की सांद्रता को कम किया जा सकता है। साथ ही पेड़ों का कटान भी कम किया जा सकता है।
वहीं, अगर हम अपने शहर में होलिका दहन पर नजर डालें तो हर साल 160 से अधिक स्थानों पर होलिका दहन होता है। हर गली-मोहल्ले में होली जलाई जाती है और सैंकड़ों टन लकडिय़ों का इस्तेमाल किया जाता है। एक होली में औसतन ढाई कुंतल लकड़ी जलती है। यदि हम एक शहर में जलने वाली होलिका दहनों की संख्या से हिसाब लगाएं तो लगभग चार लाख किलो लकड़ी हर साल होली पर जला दी जाती हैं। जबकि पुराने जमाने में घर-घर से लकड़ी लेकर होलिका जलाने की प्रथा थी।
कोट्स
हम इसको लेकर हर चाल प्रोग्राम करते हैं। हमने तो पांच पार्क गोद लिए है, जिनमें केवल उपलों का ही होलिका दहन में प्रयोग होता है। हमें हर्बल होली मनानी चाहिए। हर्बल में गोबर के उपलों का प्रयोग होना चाहिए, उसमें हवन सामग्री आदि भी डालें।
गिरिश शुक्ला, महासचिव, जागरूक नागरिक एसोसिएशन
डॉ। मधु वत्स, पर्यावरणविद् पहले लोग सीमित लकडिय़ों के साथ हवन सामग्री घी आदि विभिन्न चीजें डालते थे जिससे प्रदूषण अधिक नहीं हो पाता था। लेकिन अब जो होलिका दहन से कार्बन उत्सर्जन होता है उससे एलर्जी, डस्ट, राख, धूंए से आंख नाक में एलर्जी बढ़ जाती है।
-डॉ। विनोद द्विवेदी, प्रभारी पीएल शर्मा आयुष विंग पॉल्यूशन अब हर साल के होलिका दहन में लकड़ी की अधिक बर्बादी के चलते बढ़ जाता है, इसमें प्रशासन, रेजिडेंस वेलफेयर व एनजीओ तीनों को मिलकर अभियान चलाना होगा जो केवल फारेमेलिटी के तौर पर नहीं बल्कि जमीनी हकीकत पर होना चाहिए, सबको तय करना होगा होलिका दहन गलि मोहल्लों में न होकर कुछ ही बड़े स्थलों पर होना चाहिए।
- डॉ। विजय पंडित, संस्थापक ग्रीन केयर सोसाइटी
पर्यावरण का वाकई ही बहुत नुकसान होता है, पहले से ही वाहनों के चलते पर्यावरण की स्थिति खराब हो रही है, दूसरा हम अधिक मात्रा में छोटी छोटी जगह लकडिय़ों को जलाते है। जबकि ये बड़े आयोजनों के रुप में एक जगह पर एकत्रित होकर करना चाहिए इससे कम लकड़ी जलेगी पर्यावरण पर कम असर पड़ेगा।
- डॉ। दीपशिखा, एचओडी, ज्योग्राफी आरजी पीजी कॉलेज