Lucknow News: जो कभी उड़ाते थे डॉ. संतोष कुमार की कम हाइट का मजाक, वे आज सम्मान में झुकाते हैं सिर
लखनऊ (ब्यूरो)। पैरा ओलम्पिक में हरियाणा के 134 सेमी हाइट वाले नवदीप सिंह ने ड्वार्फ (बौनेपन) कैटेगरी में गोल्ड मेडल हासिल कर देश का मान बढ़ाया। उनका सम्मान करने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी भी जमीन पर बैठ गए। ऐसा ही एक शख्स राजधानी लखनऊ के डॉ। संतोष कुमार भी हैं, जिनकी हाइट 118 सेमी है। कम हाइट के चलते सर्कस वाले उन्हें खरीदने आए थे। लोग उनके बौनेपन का मजाक बनाते थे। हालांकि, अपनी शारीरिक लिमिटेशन के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने एजुकेशन को अपना हथियार बनाकर न केवल रिकार्ड कायम किया बल्कि कभी जो लोग उनका मजाक उड़ाते थे, वे अब सम्मान में उनके सामने अपना सिर झुकाते हैं।सर्कस वाले खरीदने आए थे
मूलरूप से चंदौली (अब बनारस) के रहने वाले बाबू लाल शर्मा के घर 29 अगस्त, 1980 को जन्मी उनकी पहली संतान का नाम माता-पिता ने संतोष रखा। समय बीतता गया और संतोष की उम्र 6 साल हो गई। तब घरवालों को पता चला कि उनके शरीर का विकास नहीं हो रहा है। वह बौनेपन का शिकार हैं। उनकी हाइट महज 118 सेमी (करीब 3.87 फिट) तक ही सीमित रह गई। गली-मोहल्ले व रिश्तेदार भी उनका मजाक बनाने लगे। धीरे-धीरे उनके ड्वार्फ होने की बात दूर-दूर तक फैल गई। इसके बाद सर्कस कंपनी के कई लोग उन्हें खरीदने के लिए उनके घर पहुंचे, लेकिन माता-पिता व चाचा से उन्हें देने से इंकार कर दिया।खुद काबिल बने, भाई-बहनों को दिया सहाराडॉ। संतोष कुमार परिवार में सबसे बड़े हैं। इसके बाद उनकी तीन बहनें और एक छोटा भाई है। संतोष ने खुद को काबिल बनाया और फिर अपने छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी उठाते हुए उन्हें भी काबिल बनाया। उनकी एक बहन सरकारी टीचर तो है दूसरी इंजीनियर। अब वे छोटे भाई को पढ़ा-लिखा रहे हैं। संतोष कुमार ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से जियोलॉजी सब्जेक्ट से बीएससी की फिर एमएससी की। एजुकेशन का सफर खत्म नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने पॉपुलेशन एजुकेशन एंड रूरल डेवलपमेंट से एमए किया और फिर सोशल साइंस व सोशल वर्क से पीएचडी की। पढ़ाई पूरी करने के बाद 2011 में रूहेलखंड यूनिवर्सिटी, बरेली में एक साल तक पढ़ाया। फिर रूरल डेवलपमेंट व सोशल वर्क डिपार्टमेंट लखनऊ यूनिवर्सिटी में दो साल तक पढ़ाया। इसके बाद 2014 से 2108 तक शकुंतला मिश्रा यूनिवर्सिटी में मास्टर ऑफ सोशल वर्क सब्जेक्ट भी पढ़ाया।ड्वार्फ कैटेगरी के पहले स्कॉलर हैं
डॉ। अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में पीडीएफ (डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी एंड प्रोफेशनल डेवलपमेंट) में सलेक्शन हुआ। जिसमें देश भर से 536 लोगों ने आवेदन किया था और मात्र 8 लोगों का सलेक्शन हुआ था। वह नॉर्थ इंडिया के एक मात्र ड्वार्क कैटेगरी के दिव्यांग थे। दिल्ली के आईसीएसएस से वह इंडियन सोशल साइंस रिसर्च सेंटर में डिसेबिलिटी पर काम कर रहे हैं।सफलता के बाद भी अलग-अलग नाम से बुलाते थेडॉ। संतोष कुमार बताते हैं कि बचपन से लेकर स्कूल कॉलेज तक कई लोग उन्हें अलग-अलग नामों से बुलाते थे। कभी 'नाटू' तो कभी 'छोटा रिचार्ज' कहते थे। वह बताते हैं कि आस-पास व उनके परिचित उनके बौनेपन को देखते हुए कहते थे कि ऐसे लोगों की समाज में कोई जगह नहीं होती है, उन्हें फिल्म, सर्कस में काम मिलता है। कभी जोकर बनते हैं तो कभी किसी होटल में वेटर बनते हैं।हिम्मत से चढ़ते गए सफलता की सीढ़ियां
डॉ। संतोष ने बताया कि उन्होंने अपनी प्राइमरी एजुकेशन लखनऊ के सरस्वती विद्या मंदिर मॉडल स्कूल से पूरी की। फिर उन्होंने 9 से 12 तक की पढ़ाई बीएसएनवी इंटर कॉलेज में एडमिशन लिया। उन्होंने साइंस सब्जेक्ट लिया था, लेकिन उन्हें कॉमर्स में डाल दिया गया। इसके पीछे वजह यह बताई गई कि केमिस्ट्री लैब में प्रैक्टिकल के दौरान केमिकल रिसर्च के लिए जो टेबल होती है, उसकी ऊंचाई ज्यादा थी और संतोष टेबल तक नहीं पहुंच सकते थे। उनके प्रिंसिपल ने उनका सब्जेक्ट बदल दिया। इसके बाद वह प्रिंसिपल रूम में एक महीने तक हर दिन बाहर बैठ जाते थे और साइंस सब्जेक्ट वापस पाने की मांग करते थे। आखिर में प्रिंसिपल उनकी हिम्मत व जज्बे के सामने हार गए और केमिस्ट्री लैब में स्पेशल बेंच व टेबल बनाई गई ताकि वह उस पर खड़े होकर अपना प्रैक्टिकल वर्क पूरा कर सकें। साइंस सब्सेक्ट से उन्होंने 12वीं के बाद अपनी पढ़ाई आगे जारी रखी।पाठ्यक्रम में शामिल हो सकती है उनकी किताबडॉ। संतोष बताते हैं कि बचपन से लेकर अब तक कम हाइट के चलते उन्हें दिक्कतें तो कई आईं, लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। वह न तो बस पर चढ़ पाते हैं और न ही टैंपो में। यहां तक कि रिसर्च के लिए जाने पर वे पड़ाहों पर भी नहीं चढ़ पाते थे। जिससे कई बार रिसर्च में उन्हें नंबर कम मिलते थे और रिजल्ट पर भी इसका असर पड़ता था। डॉ। संतोष ने किताब भी लिखी है, जिसे सेंटर से मंजूरी मिलने के बाद पाठ्यक्रम में भी शामिल किया जाएगा।