कानपुर ब्यूरो । बिधनू के प्रयाग बाल मंदिर इंटर कॉलेज में 10वीं के स्टूडेंट की क्लासमेट ने सनसनीखेज तरीके से मर्डर की वारदात को अंजाम दिया. इस वारदात ने पूरे सिस्टम को हिला कर रख दिया.

कानपुर (ब्यूरो)। बिधनू के प्रयाग बाल मंदिर इंटर कॉलेज में 10वीं के स्टूडेंट की क्लासमेट ने सनसनीखेज तरीके से मर्डर की वारदात को अंजाम दिया। इस वारदात ने पूरे सिस्टम को हिला कर रख दिया। पुलिस के बयान में भी आरोपी ने कबूला था कि उसने मर्डर के तरीके के लिए सोशल मीडिया से टिप्स लिए थे। इसके अलावा ओटीटी पर क्राइम सीरिज देख कर मर्डर का पैटर्न सीखा था। इस वारदात से एक बात साफ है कि ओटीटी और सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर परोसे जा रहे कंटेंट टीनएजर्स की न केवल मानसिकता बदल रहे बल्कि उन्हें क्राइम की तरफ ढकेल रहे हैं। कोमल मन में हार्डकोर क्राइम की स्टोरीज गहरा असर डालती हैं। चाइल्ड साइकियाट्रिस्ट की माने तो बच्चों में रेड फ्लैग्स ऑफ एडोलसेंस क्राइसिस पहचानना बेहद जरूरी है। क्योंकि कोई भी घटना करने से पहले वो कई तरह के संकेत देते हैं। बस जरूरत है सही समय पर पहचान कर सही कदम उठाने की।

माइंड पर गहरा असर करते
प्रोफेसर संदीप कुमार सिंह ने बताया कि क्राइम या एक्शन रिलेटेड जो शो होते हैं, वे आज के दौर में ओटीटी के माध्यम से हर किसी के पास आसानी से उपलब्ध हैं। इनमें अडल्ट कंटेंट काफी होता है। चूंकि एडोलसेंस एज में शरीर में कई बदलाव हो रहे होते हैं। ऐसे में इस तरह के शोज देख कर मानसिकता वैसी हो जाती है कि 'मैं भी ऐसा करना चाहता हं या इसके ख्वाब देखता हूं। बच्चों में साइकोलॉजिकल मैच्योरिटी ज्यादा नहीं होती है, इसलिए वे देखी गई चीजों को करने की कोशिश करते हैं।

बच्चों में चेंजेस को पहचानें
जीएसवीएम की क्लीनिकल साइकोलॉजिकल असि। प्रोफेसर डा। अराधना गुप्ता का कहना है कि एडोसलेंस क्राइसिस स्टेज बेहद खतरनाक होती है। ऐसे में पैरेंट्स को अपने बच्चों को बहुत संभालना चाहिए वरना बात बिगड़ सकती है। ऐसे में पैरेंट्स और टीचर्स दोनों को रेड फ्लैग्स ऑफ एडोलसेंस क्राइसिस को पहचानना बेहद जरूरी है। अगर आपको लगे कि बच्चों पर कोई दवाब है, चिड़चिड़ापन है, वह उग्र हो रहा है, पसंद नापसंद में बदलाव हो रहा है, कम माक्र्स आ रहे हैं, जिद करता है, बात नहीं करता, झगड़ता है, टीवी व मोबाइल ज्यादा देखता है, गिने चुने लोगों से मिलता है, एक्सपेरिमेंट खासतौर पर नशा को लेकर आदि बदलावों को पहचानना बेहद जरूरी है। पैरेंट्स को इन रेड फ्लैग्स को जल्दी पहचानना चाहिए और समय रहते काउंसलिंग करें। जरूरत पडऩे पर डॉक्टर से काउंसलिंग करवाएं।

समय पर कराएं काउंसिलिंग
असि। प्रोफेसर डॉ। अराधना गुप्ता ने कि विदेशों में इस तरह के मामले ज्यादा होते हैं, क्योंकि वहां पैरेंट्स बच्चों को ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं। वही हाल अब भारत में हो रहा है। माता-पिता दोनो पैरेंट्स वर्किंग हैं, जिसकी वजह से वे बच्चों को अपना समय नहीं दे पाते। ऐसे में रोज अपने बच्चों से पूछें कि लाइफ में क्या चल रहा है। क्योंकि कई बार बच्चों में व्यवहारिक परेशानियां होती हैं, जिसके चलते वे घटना के लिए पहले से ही प्लानिंग करते हैं। पहले से ही उनकी तरफ से कुछ संकेत मिलते हैं। पैरेंट्स और टीचर भी इन्हें पहचान नहीं पाते। ऐसे में समय पर काउंसलिंग कराना बेहद जरूरी है। काउंसलिंग पैरेंट्स, भाई बहन या टीचर भी कर सकते हैं। पर इसके बाद भी सुधार न हो तो बिना देर किए साइकियाट्रिस्ट को दिखाना चाहिए।

ज्यादा स्क्रीन टाइम बन रहा समस्या
बच्चों पर सोशल मीडिया का इंपैक्ट सबसे ज्यादा है। इस उम्र में टीनएज लव व सेक्सुअल एक्टिविटीज बढ़ती जा रही हैं। बच्चे समय से पहले मैच्योर हो रहे हैं। भारत में हुई कई स्टडी कहती हैं कि बच्चों में स्क्रीन टाइम बढ़ा है। यहां 12 से 15 साल के बच्चों में स्क्रीन टाइम 6 से 7 घंटा है, जो कि काफी हाई है। एक स्टडी के अनुसार, बच्चों का स्क्रीन टाइम जितना अधिक होगा, उनमें गुस्सा और आवेग आने के चांस उतने ज्यादा होंगे। वे वॉइलेंट कंटेंट ज्यादा देखते तो उससे भी उग्र होने लगते हैं। उन्हें इमोशनल प्राब्लम, डिप्रेशन, एन्जायटी आदि होती है।

बच्चों में रेड फ्लैग्स को पहचानें
- बच्चों पर कोई दवाब है
- चिड़चिड़ापन, उग्र होना
- पसंद नापसंद में बदलाव
- कम माक्र्स आना
- जिद करना, बात नहीं करना
- झगड़ा करना
- टीवी व मोबाइल ज्यादा देखना
- गिने चुने लोगों से मिलना

ऐसे लाएं बदलाव
- बच्चों से डेली लाइफ के बारे में बात करें
- टीवी या मोबाइल फोन स्क्रीन टाइम कम करें
- नजर रखें कि एग्रेसिव कंटेंट तो नहीं देख रहे
- बच्चों को पर्याप्त समय दें, उनके साथ खेलें
- आउट डोर गेम्स खेलने के लिए प्रेरित करें
- मेडिटेशन और एक्सरसाइज भी करवाएं
- कोई समस्या हो तो तुरंत काउंसलिंग करवाएं

ओटीटी की वजह से हर तरह का कंटेंट बच्चों को आसानी से मिल रहा है। लगातार ऐसा कंटेंट देखने के कारण बच्चे वैसा ही करने की सोचने लगते हैं। ऐसे में पैरेंट्स और टीचर्स को बच्चों में रेड फ्लैग्स को पहचानना बेहद जरूरी है। बच्चों सिर्फ वो चीजें दिलाएं जो उनके काम और पढ़ाई के लिए जरूरी हों। बच्चों की हर तरह की जिद पूरी करना अच्छा नहीं होता है। इसके बाद सबसे जरूरी है मॉनीटरिंग। काम की व्यवस्तता में पैरेंट्स ने बच्चों को अकेला और मोबाइल के भरोसे छोड़ दिया है। उसी के परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं।

-डॉ। अराधना गुप्ता, असि। प्रोफेसर क्लीनिकल साइकोलॉजी, बाल रोग, जीएसवीएम

केवल ओटीटी प्लेटफॉर्म ही नहीं, इसके लिए सोशल मीडिया भी जिम्मेदार है। हर जगह हिंसा और न्यूडिटी परोसी जा रही है। इसके अलावा मूवी या क्लिप में यूज की जाने वाली लैंग्वेज भी बहुत रफ होती है। लगातार इस तरह का कंटेंट देखने से वो दिमाग पर हावी होने लगता है और व्यक्तित्व पर हावी होने लगता है। इसको देखने वालों की भाषा और मानसिकता दोनों बिगड़ रही है। बच्चों पर सबसे ज्यादा असर इसलिए पड़ा है क्योंकि उनमें सही और गलत में अंतर करने की शक्ति कम होती है। हिंसक और अभद्र भाषा का कंटेंट पेश करने वालों के लिए कानून बने और उन पर पुलिस को एक्शन लेना चाहिए।
-प्रोफेसर संदीप कुमार सिंह, डीन, स्कूल ऑफ आट्र्स, ह्यूमैनिटीज एंड सोशल साइंसेजए सीएसजेएमयू कैंपस

Posted By: Inextlive