किशोरों में फैल रहा गेमिंग डिसऑर्डर, इंटरनेशनल डिसीज के बढ़ते मामले जानिए वजह
कानपुर(ब्यूरो)। कोविड में ऑनलाइन पढ़ाई जरूरत बन गई थी। बच्चों को पढ़ाई के लिए एन्ड्रॉयड मोबाइल दिया गया। पढ़ाई के दौरान कब बचपन इन मोबाइल्स पर होने वाले गेम्स का दीवाना हो गया। न तो ये बात पैरेंट्स को पता चली और न ही मोबाइल इस्तेमाल करने वाले स्टूडेंट्स को। पैरेंट्स को तब पता चला जब बच्चा बात-बात पर जिद करने लगा। मोबाइल अपने पास रखने के लिए जिद शुरू हुई। छोटी-छोटी बात पर चिढ़चिढ़ाहट होने लगी। सोने-जागने का कोई समय निर्धारित नहीं रह गया। जब पढ़ाई प्रभावित हुई तो पैरेंट्स ने डॉक्टर्स से संपर्क किया, पता चला कि बच्चे को गेमिंग डिसऑर्डर नाम की बीमारी हो गई है। ये बीमारी मासूम बच्चों और 13 से 17 साल तक के किशोरों को लिए खतरनाक भी साबित होने लगी।
गेमिंग डिसऑर्डर के कुछ मामले
पहला मामला : स्वरूप नगर के पंचरतन अपार्टमेंट निवासी कारोबारी संतोष गुप्ता का बेटा राजीव गुप्ता एक पब्लिक स्कूल में आठवीं का स्टूडेंट हैं। संतोष की चिंता है उनका इकलौता बेटा राजीव, जो देर रात तक जागता रहता है। भूलने की आदत भी बन गई है। बेटे को डॉक्टर को दिखाया तो डॉक्टर ने डिसीज हिस्ट्री चेक की। पता चला कि गेमिंग डिसआर्डर है।
दूसरा मामला : डॉक्टर साहब, मेरा बेटा राकेश पूरे दिन सोता है। रात में जागता है। पढ़ाई में भी मन नहीं लगता। रिजल्ट खराब हो चुका है। ये शिकायत नजीराबाद के दर्शनपुरवा में रहने वाले प्रशांत की है। डॉ। गणेश शंकर को दिखाने के बाद ये पता चला कि राकेश को भी गेमिंग डिसऑर्डर की शिकायत है। जिसकी वजह से उसकी फिजिकल के साथ मेंटल हेल्थ भी खराब हो रही है।
तीसरा मामला : शहर में तैनात एक अधिकारी का बेटा भी तीन साल पहले इस बीमारी का शिकार हो गया था। कानपुर और लखनऊ में इलाज होने के बाद भी जब रिलैक्स नहीं हुआ तो दिल्ली के डॉक्टर्स से परामर्श लिया। डॉक्टर की सलाह के बाद बेटे को इन दिनों माहौल बदलने के लिए पत्नी के साथ विदेश भेजा है।
एज फैक्टर हो गया है कम
डॉक्टर्स का मानना है कि अब तक ये बीमारी 18 साल से ज्यादा उम्र के उन युवाओं में देखी जाती थी जो कैरियर के लिए स्ट्रगल करते थे, लेकिन लगभग चार साल से इस बीमारी का एज फैक्टर कम हो गया है। डॉक्टर्स का कहना है ऐसे बच्चों को एग्जाम के समय फीवर आना और कंपकंपी छूटना आम बात है। इनके लिए डॉक्टर्स सजेस्ट करते हैं। गेमिंग डिसआर्डर को वल्र्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन(डब्लूएचओ) ने इंटरनेशनल डिसीज की श्रेणी में रखा है। ऑनलाइन गेम खेलने वाले बच्चे इस बीमारी की चपेट में आ रहे हैं। कोरोना काल के बाद इसमें तेजी देखी गई है। ये बीमारी बच्चों के सोचने-समझने की शक्ति खत्म कर देती है। हाथ में मोबाइल न हो तो बेचैन रहते हैं।
साइबर मैन मनीष गोयल का कहना है कि ऐसे कई सॉफ्टवेयर और टूल उपलब्ध हैं, जिनसे बच्चे की स्क्रीन टाइम पर नजर रखी जा सकती है। गूगल फैमिली लिंक अच्छा विकल्प है। क्यूसटोडियो, ओपनडीएनएस फैमिली शील्ड, किडलागर, स्पाइरिक्स फ्री कीलागर जैसे साफ्टवेयर की मदद से इंटरनेट गतिविधियों पर नजर रखी जा सकती है। महत्वपूर्ण बिंदु
- देश में ऑनलाइन गेम खेलने वालों की संख्या 2022 में 42 करोड़ से ज्यादा थी, जो अब 44.2 करोड़ हो गई है।
- स्मार्ट मोबाइल का यूज करने वालों में हर तीसरा बच्चा गेमिंग डिसऑर्डर का है शिकार, प्रॉपर ट्रीटमेंट की जरूरत
- अनुमान के तौर पर देश में ई-स्पोर्टस का 11 बिलियन रुपये का व्यापार है। यह दिनों दिन बढ़ता जा रहा है
-वल्र्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन ने गेमिंग डिसआर्डर को 2018 में इंटरनेशनल डिसीज की श्रेणी में शामिल किया था।
कैसे करें बचाव
- बच्चे को मोबाइल और लैपटाप से दूर रखने की कोशिश करें।
- बच्चे आपको डिस्टर्ब न करें इसलिए उन्हें मोबाइल न पकड़ाएं
- बच्चों के साथ खुद शतरंज, लूडो या आउटडोर गेम्स खेलें।
-बच्चों के सामने पेरेंट्स भी बेवजह मोबाइल का यूज न करें
-बच्चों को मोबाइल दिया है तो उसकी मॉनीटरिंग करते रहें
-अगर किसी गेम या साइट पर ज्यादा वक्त गुजा रहा है अलर्ट हो जाएं
-ध्यान रखें कि मोबाइल पर वेवजह के एप न डाउनलोड हों
- रात को बच्चों को मोबाइल बिल्कुल न यूज करने दें
साइकियाट्रिक डॉ। गणेश शंकर का कहना है कि ये बच्चों में होने वाली एक गंभीर बीमारी है। अगर आपका बच्चा छोटी-छोटी बातों में जिद करे, सोते समय और बाथरूम जाते समय मोबाइल अपने साथ रखे, आपकी बातों को लगातार इगनोर करे, सोने और जागने का रूटीन न हो। फेस स्टडी देखने पर आंखों के नीचे कम उम्र में काले घेरे और हमेशा जगाहट जैसे एक्सप्रेशन दिखें। हर समय जम्हाई लेते बच्चा दिखाई दे तो ये समझ जाना चाहिए कि बच्चा गेमिंड डिसऑर्डर का शिकार है।
क्या करना चाहिए
डॉक्टर्स का कहना है कि अगर बच्चा गेमिंग डिसऑर्डर का शिकार हो जाए तो उसके साथ मारपीट या डांट फटकार मत करें। अगर ज्यादा डांटने और मारने की स्थित होती है तो किशोरावस्था में सुसाइडियल टेंडेंसी जन्म ले लेती है और अनहोनी वारदातें हो जाती हैं। अगर बीमारी के सिम्पटम्स दिखाई दें तो सबसे पहले बच्चे का माहौल बदल देना चाहिए। संभव हो तो कुछ दिनों के लिए आउटिंग करनी चाहिए, जिससे बच्चा मोबाइल गेम छोडक़र दूसरी तरफ मन लगा सके और धीरे धीरे मोबाइल की आदत कम करा देनी चाहिए। डॉक्टर से संपर्क कर समय-समय पर सलाह लेते रहना चाहिए।