कई लोगों को इस बात से हैरानी होती है कि क्रिकेट में झंडे गाड़ने वाले भारत की आबादी एक अरब से ज्यादा है फिर भी लंदन ओलंपिक में उसे एक स्वर्ण पदक तक नहीं मिल पाता.

लेकिन भारत की विशालता, उसकी युवा आबादी, बढ़ती अर्थव्यवस्था और सुलभ मीडिया दुनिया के तमाम बड़े खेल संगठनों को यहां संभावनाएं तलाशने के लिए आकर्षित कर रहे हैं।

भारत में फुटबॉल की लोकप्रियता से स्टीव बेलिस को भी हैरानी हुई जो लिपरपूल एफसी की विदेशों में होने वाली गतिविधियों से जुड़े हैं और एक साल में दस बार भारत का दौरा करते हैं। वे कहते हैं, ''मैं जब पहली बार भारत गया तो मुझे लगा कि यहां बस क्रिकेट ही क्रिकेट है, लेकिन मुंबई में खेल के मैदानों, सड़कों, समंदर किनारे हर जगह बच्चे फुटबॉल खेलते नज़र आए.'' वे कहते हैं कि फुटबॉल भारत में लोकप्रिय हो रहा है और इसका यहां बड़ा बाज़ार है। फुटबॉल प्रेमी भारतीयों के लिए इंग्लैंड प्रीमियर लीग बड़ा आयोजन है जो टीवी पर आसानी से देखा जा सकता है।

स्टीव बेलिस तसल्ली से काम करने में भरोसा रखते हैं। उन्हें नहीं लगता कि पैसा आसानी से पैदा होता है और ऐसा करने का उनका कोई इरादा भी नहीं है। वे कहते हैं, ''यहां कई क्लब खुल गए हैं जो खुद को अकादमी बताते हैं। यहां कुछ फुटबॉल स्कूल भी हैं जहां वो बच्चे भर्ती होते हैं जिनके माता-पिता कोच का खर्चा उठा सकते हैं। इसका काबिलियत से कोई ताल्लुक नहीं है.'' वे कहते हैं, ''हम अपने मुनाफे का इस्तेमाल बाकायदा फुटबॉल अकादमी स्थापित करने में करना चाहते हैं ताकि युवा खिलाड़ी आगे आ सकें.''

फुटबॉल को आगे बढ़ाने में पैसा लगाने के पीछे कई तर्क हैं जैसे एक ये कि यदि अधिक से अधिक बच्चे फुटबॉल खेलेंगे तो इससे इस खेल का ही भला होगा। भारत में कारोबार करने में परिवहन और नौकरशाही जैसी तमाम दिक्कतों का सामना करने के बावजूद स्टीव बेलिस को भविष्य के लिए अवसर नजर आते हैं। वे कहते हैं, ''यदि आपको सही साझेदार मिल जाए तो बड़ा फायदा है। भारत में प्रतिभाओं की कमीं नहीं है.''

खेल और वतन वापसी

डेट्राएट में रहने वाले 37 वर्षीय आकाश जैन नेशनल बॉस्केटबॉल एसोसिएशन का भारत में कामकाज देखते हैं। वो उन कई भारतीय-अमरीकियों में से एक हैं जो उस वतन को लौट रहे हैं जिसे उनके माता-पिता ने कई वर्षों पहले छोड़ दिया था।

आकाश कहते हैं, ''फुटबॉल से मेरा लगाव रहा है, इसे आगे बढ़ाने का काम करना मुझे अच्छा लगता है। वे कहते हैं कि अमरीका का नेशनल बॉस्केटबॉल एसोसिएशन भारत में अपनी जगह तलाशने की कोशिश कर रहा है। आकाश को मुंबई में रहना अच्छा लगता है और उनकी अगले कुछ वर्ष भारत में रहने की योजना है. 

वे कहते हैं, ''आपको यहां धंधा करना है तो यही रहना होगा.'' नेशनल बॉस्केटबॉल एसोसिएशन ने बॉस्केटबॉल को बढ़ावा देने के लिए हाल ही में एक बड़े प्रसारण करार पर दस्तखत किए हैं जिसके तहत इस खेल के चाहने वाले एक सीज़न में लगभघ 100 गेम्स का सीधा प्रसारण देख सकेंगे। वे कहते हैं, ''भारत में पचास लाख लोग हैं जो नियमित रूप से बॉस्केटबॉल खेलते हैं और नेशनल बॉस्केटबॉल एसोसिएशन से जुड़ने वालों की संख्या में 50 फीसद इजाफा हुआ है.''

कारोबार की राह असान नहीं

एक तरफ जहां बड़े फुटबॉल क्लब और नेशनल बॉस्केटबॉल एसोसिएशन जैसी प्रमुख लीग अपने लोगों को भारत भेज रही हैं, वहीं ऐसे कई भारतीय भी हैं जो विदेशों में पले-बढ़े हैं और अब खेल उद्योग से जुड़ने के इरादे से वापस भारत लौट रहे हैं।

दिल्ली में पैदा हुए और कार्नेल यूनिवर्सिटी से स्नातक 32 वर्षीय खेलप्रेमी विवेक सेतिया ने न्यूयॉर्क में एक अग्रणी कन्सलटेंसी के साथ काम भी किया है। वे कहते हैं, ''मेरे पास यदि करोड़ों रूपए होते तो मैं सबका निवेश भारत में कर देता। लेकिन भारत में खेल उद्योग निवेश के मामले में उतना रिटर्न नहीं देता जितना रिटर्न प्रॉपर्टी मार्केट में मिलता है.''

पैसे बनाने के हिसाब से स्पोर्ट्स कोई आसान कारोबार नहीं है। लगभग हर बड़े फुटबॉल क्लब को मुनाफा कमाने के लिए जूझना पड़ता है। भारत में खेल उद्योग की राह आसान नहीं है। विकास की वैसी ही दीर्घकालीन रणनीतियों की जरूरत है जैसी लीवरपूल और नेशनल बॉस्केटबॉल एसोसिएशन अपना रहे हैं।

Posted By: Inextlive