सपने कम कर सकते हैं कड़वी यादों की चुभन
कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय की बर्कले टीम ने वॉलंटीयर्स को कई घंटों के अंतराल में दो बार भावनात्मक तस्वीरें दिखाईं। दूसरी बार तस्वीरें दिखाने के दौरान इन लोगों के मस्तिष्क का स्कैन किया।
जिन लोगों को दोंनो सत्रों के बीच सोने दिया गया, उनके मस्तिष्क के भावनाओं से जुड़े हिस्सों में कम गतिविधि देखी गई। वहीं, मस्तिष्क का जो हिस्सा तर्क से जुड़ा है, वो इस दौरान ज़्यादा सक्रिय पाया गया। 'करंट बायोलॉजी' पत्रिका में छपे इस अध्ययन में कहा गया है कि इससे पता चलता है कि सपनों और याददाश्त के बीच संबंध है।ज़्यादातर लोग ज़िंदगी में कभी-न-कभी तनाव और सदमे से गुज़रते हैं। इनमें से कुछ लोगों में इन घटनाओं की वजह से पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रैस डिसऑर्डर, पीटीएसडी, नाम की बीमारी हो जाती है जिससे वे घटना होने के लंबे समय बाद भी भावनात्मक रूप से व्याकुल और अशांत रहते हैं।अध्ययनइस अध्ययन में 35 लोग शामिल थे जिन्हें दो समूहों में बांटा गया। इन सबको भावनात्मक प्रतिक्रिया पैदा करने वाली 150 तस्वीरें दिखाने के बाद इनमें से आधे लोगों को रात भर सोने दिया गया।
इसके बाद दोनों ही समूहों के मस्तिष्क का एमआरआई स्कैन किया गया और स्कैनर के अंदर इन्हें एक बार फिर से तस्वीरें दिखाई गईं.एमआरआई स्कैन मस्तिष्क के सबसे ज़्यादा सक्रिय हिस्सों का पता करने के लिए एक अच्छा तरीका है।
जो लोग रात भर सोए, उनके मस्तिष्क का भावनाओं से जुड़ा हिस्सा कम सक्रिय, लेकिन तर्क से जुड़ा ज़्यादा सक्रिया पाया गया। वहीं जो लोग नहीं सोए थे, उन्होंने दोबारा तस्वीरें दिखाने पर ज़्यादा भावनात्मक प्रतिक्रिया दी।सपने और यादेंवैज्ञानिकों का मानना है कि रैपिड आई मूवमेंट, आरईएम, नींद के दौरान मस्तिष्क में आए रासायनिक बदलावों से इन प्रतिक्रियाओं के अंतर को समझने में मदद मिल सकती है।आरईएम नींद वो नींद है जिस दौरान इंसान सपने देखता है। इस बात के कई अहम सबूत हैं कि आरईएम नींद की ताज़ा यादों को प्रोसेस करने में भूमिका होती है। शोधकर्ता मानते हैं कि इसकी बेहतर समझ आगे चलकर पीटीएसडी मरीज़ों के इलाज में सहायक सिद्ध हो सकती है।इस अध्ययन के प्रमुख वैज्ञानिक, डा। मैथ्यू वॉकर के मुताबिक, "हमें पता है कि आरईएम नींद के दौरान मस्तिष्क में नॉरऐपीनेफ़रिन नाम के रसायन की मात्रा में भारी कमी आ जाती है।इस दौरान जब हम अपने पुराने भावनात्मक अनुभवों के बारे में सोचते हैं, तो अगले दिन सो कर उठने पर उन अनुभवों की चुभन कम हो जाती है। हम बेहतर महसूस करते हैं और हमें लगता है कि हम इनसे निपट सकते हैं."
वहीं क्लिनिकल मनोवैज्ञानिक डा। रॉड्रिक ओरनर कहते हैं कि हालांकि कई लोग मानते हैं कि सदमा और तनाव देने वाली यादों से निपटने में नींद की अहम भूमिका होती है, लेकिन पीटीएसडी मरीज़ों की हालत के कई और भी कारण हो सकते हैं।उनका कहना था, "जिन लोगों को बहुत ही बड़ा आघात लगा है, हो सकता है कि उन मरीज़ों के लिए नींद में उसे प्रोसेस करना बहुत ज़्यादा मुश्किल हो, ख़ासकर अगर उस घटना की उस व्यक्ति की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बहुत अहमियत हो."