अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का कहना है कि आर्कटिक सागर पर जमी बर्फ पिघलकर इस साल पिछले 30 वर्षो के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है. आर्कटिक दुनिया का तापमान नियंत्रण में रखने के लिए काफी महत्वपूर्ण है इसलिए वैज्ञानिकों में इसे लेकर चिंता है.

शोध में शामिल वैज्ञानिकों का कहना है कि ये मूलभूत बदलावों का एक अंग है। आम तौर पर यहां की समुद्री बर्फ का पिघलना सितंबर तक जारी रहता है, इसलिए बर्फ के स्तर का और गिरना संभव है।

सर्दियों में आर्कटिक सागर बर्फ से ढक जाती है और तापमान पढ़ने के साथ पिघलते जाती है, लेकिन पिछले तीन दशकों में सैटेलाइट ने प्रति दशक गर्मियों के समयकाल में 13 फीसदी की कमी दर्ज की है। आर्कटिक में बर्फ की मोटाई में भी कमी आई है, लिहाजा बर्फ के कुल आकार में भी गिरावट आई है।

'परिवर्तन'शोध में शामिल नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर के वाल्ट मेइर ने कहा, “पिछले कुछ वर्षों से जो हो रहा है वो दिखाता है कि बर्फीले आर्कटिक समुद्र में मूलभूत परिवर्तन हो रहे हैं.”

कैम्ब्रिज विश्विद्यालय के प्रोफेसर पीटर वेढम्स मे बीबीसी न्यूज़ को बताया, “बर्फ को मापने का काम कर रहे कई वैज्ञानिकों ने कुछ साल पहले भविष्यवाणी की थी कि बर्फ के स्तर में गिरावट तेज होगी और साल 2015-16 तक गर्मियों में आर्कटिक में बर्फ दिखना बंद हो जाएगा.”

आर्कटिक में बर्फ कितने समय बाद गायब होगी इस बात पर वैज्ञानिकों की अलग-अलग राय है। एक अन्य शोध के अनुसार 5 से 50 फीसदी तक की बर्फ पिघलने के पीछे प्रकृति का सामान्य चक्र है। शोध के अनुसार 1970 के दशक में ही चक्र का गर्म दौर शुरु हो गया था।

अवसर और खतरेशोध के अनुसार बर्फ के पिघलने के पीछे मानवीय गतिविधियां और पेड़ों का कटान भी काफी हद तक जिम्मेदार है। अगर आर्कटिक में गर्मियों में बर्फ का कम होना जारी रहा तो नए अवसरों के साथ खतरे भी बढ़ेंगे। बर्फ कम होने के बाद से पानी के कई जहाज उत्तरी रूस जैसे बर्फ से ढके हुए और कठिन माने जाने इलाकों से होकर गुजर रहे है।

पर्यावरणविदों के विरोध के बावजूद तेल और गैस निकालने वाली कंपनियां आर्कटिक पर नजरे गढ़ाए बैठी हैं। रूसी कंपनी गैज़प्रोम के द्वारा की जा रही खुदाई का ग्रीनपीस काफी समय से विरोध कर रही है।

आर्कटिक में जिस मूलभूत परिवर्तन की बात कही जा रही है, वो अगर सच साबित हुआ तो बर्फ में जमे मीथेन के कण धरती का तापमान और बढ़ा सकते है।

Posted By: Inextlive