नहीं बच सकी दुर्लभ पक्षी की जान
- अलाव की गर्मी देकर बचाने का किया था प्रयास
- सूचना के बाद भी घंटों लेट से पहुंची वन विभाग की टीम - गिद्ध को इलाज के दौरान मौत, उम्र पूरी होना वजह बता रहे डीएफओ द्दह्रक्त्रन्य॥क्कक्त्र : संडे मार्निग खोराबार के सिक्टौर एरिया में बुजुर्ग और कमजोर गिद्ध को तड़पते देख लोग दंग रह गए। प्रकृति के दुर्लभ पक्षी की जान बचाने के लिए ग्रामीणों ने कई घंटे तक संघर्ष किया। इसकी सूचना वन विभाग को भी दी। दो घंटे बाद पहुंची वन विभाग की टीम उसे इलाज के लिए पशु चिकित्सालय ले गई, लेकिन तब तक उसकी मौत हो गई। दो घंटे बाद पहुंची वन विभाग की टीमसिक्टौर स्थित एक गांव दुर्लभ पक्षी के मिलने की सूचना आग की तरह पूरे गांव में फैल गई। दुर्लभ पक्षी को एक नजर देखने के लिए सैकड़ों की भीड उमड़ पड़ी। उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी। लोगों को लगा उसे ठंड लग गई है इसलिए उसे आग के पास रख कर लोग उसकी सिंकाई करते रहे। ग्रामीणों ने इसकी सूचना वन विभाग को दी। वन विभाग की टीम करीब दो घंटे बाद मौके पर पहुंची। गिद्ध की हालत इस कदर खराब थी कि उसे तत्काल इलाज के लिए पशु चिकित्सालय पहुंचाया गया, लेकिन तब तक उसकी मौत हो चुकी थी। डीएफओ का कहना है कि गिद्ध की औसत उम्र 35 से 40 साल होती है और गिद्ध बुजुर्ग हो गया था जिसके चलते उसकी मौत हो गई।
12 साल में 95 प्रतिशत घट गए गिद्घ यह जाति आज से कुछ साल पहले अपने पूरे क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में पाई जाती थी। 90 के दशक में इस जाति का 97 प्रतिशत से 99 प्रतिशत पतन हो गया। इसके पतन का मूल कारण पशु दवाई डाइक्लोफिनॅक है जो कि पशुओं के जोड़ों के दर्द को मिटाने में मदद करती हैं। इस दवाई को खाने वाले पशु की अगर मौत हो जाए और उसकी लाश को भारतीय गिद्ध खाता है तो उसके गुर्दे बंद हो जाते है और वह मर जाता है। प्रकृति के दोस्त है गिद्धप्रकृति ने हर प्राणी को एक नियम के तहत बनाया गया हैं। हर प्राणी को एक नियत जिम्मेदारी दी गई है। प्रकृति के इस चक्र में साफ सफाई का काम करने वाले गिद्धों की संख्या पिछले एक दशकों में एकाएक घट गई है। लगभग सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में विलुप्त हो रहे गिद्धों को बचाने के लिए भारत सरकार ने प्रयास शुरू कर दिए हैं। इसके तहत पशुओं को दी जाने वाली उस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया जिसमें कारण गिद्धों की मौत हो रही हैं। 12 सालों में गिद्धों की संख्या में 97 प्रतिशत की कमी आई है और वे विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गए हैं।
क्यों हो रहे रहे विलुप्त? पशुओं की दवा के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में बढ़ता प्रदूषण, कटते पेड़ से गिद्धों के बसेरे की समस्या भी इस शानदार पक्षी को बड़ी तेजी से विलुप्ति के कगार पर धकेल रही है। वैसे भी भारतीय समाज में गिद्धों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। मरे हुए प्राणियों का मांस नोचने वाले इस पक्षी को सम्मान या दया की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। मुर्दाखोर होने की वजह से गिद्ध पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते है और सड़े हुए मांस से होने वाली कई बीमारियों की रोकथाम में सहायता कर संतुलन बिठाते हैं। फैक्ट फाइल - गिद्घों का एक दल एक मरे हुए सांड को केवल 30 मिनट में साफ कर सकता है। - सरकार ने अप्रैल, 2006 में गिद्घ संरक्षण के लिए एक कार्ययोजना की घोषणा की थी।- डाइक्लोफेनेक का पशुचिकित्सीय इस्तेमाल पर रोक तथा गिद्घों के संरक्षण और प्रजनन केन्द्र की घोषणा भी हुई थी, पर नतीजा कुछ खास नहीं निकला।
- पहला गिद्घ संरक्षण प्रजनन केन्द्र हरियाणा के पिंजौर में और दूसरा प्रजनन केन्द्र पश्चिम बंगाल के राजा त्खावा, बुक्सा टाइगर रिजर्व में खोला गया। - असम में इसके प्रजनन के एक तीसर केन्द्र को मंजूरी दे दी गयी है, लेकिन इससे देश में गिद्धों की संख्या बढ़ने की कोई सूचना नहीं है, उल्टे उनके लगातार कम होते जाने की खबरें ही आ रही हैं।