भूखे मरने की कगार पर हैं रामलीला के कलाकार
- जीतोड़ मेहनत के बाद सिर्फ मिलती हैं तालियां, साल भर की रोटी का इंतजाम करना हुआ मुश्किल
GORAKHPUR: एक ओर जहां देश तरक्की की ओर बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर रामलीला कलाकारों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। कलाकार अपनी कला के जरिए घूम-घूम कर लोगों को राम-रावण युग से परिचित करा रहे हैं, लेकिन उनका खुद का क्या परिचय है यह उन्हें भी नहीं पता। आर्यनगर रामलीला के लिए पीपीगंज से आई आर्दश रामलीला मंडल फुलवरिया के कलाकारों का मानना है कि आज देश में तमाम ऐसे लोग हैं, जिनके पास न ही शिक्षा है और न ही ज्ञान। बावजूद इसके वह भी अच्छा पैसा कमा रहे हैं, लेकिन रामलीला करने वाला कलाकार भूखों मर रहा है। इसकी न तो सरकार सुधि लेती, न कोई राजनैतिक संगठन और न ही कोई अन्य संस्थाएं। जो कलाकार अपना पूरा जीवन राम चरित मानस के आधार पर गुजार रहे हैं। उनका वास्तविक जीवन क्या है यह जानकर किसी को भी हैरानी होगी कि महज चंद रुपए में यह कलाकार कैसे अपना जीवन गुजारते हैं।
नहीं मिलती कोई मददआर्यनगर रामलीला के कलाकारों के मुताबिक वह करीब 40 साल से रामलीला का प्रर्दशन कर रहे हैं, लेकिन उन्हें कभी किसी तरह की कोई मदद नहीं दी जाती। कलाकारों का मानना है कि आयोजन समिति के लोग तो जो होता है वह देते ही है, लेकिन इससे कलाकारों के साल भर का खर्च तो नहीं चल सकता। इस दिशा में किसी तरह की कभी कोई ठोस पहल भी नहीं की जाती। यही वजह है कि कलाकार जहां 40 साल पहले थे, वहीं आज भी हैं।
अयोध्या में पूरे साल होती है सरकारी रामलीला यहां के कलाकार बताते हैं कि अयोध्या में स्थित तुलसी स्मारक मानस शोध संस्थान की ओर से पूरे साल रामलीला होती है। प्रत्येक 16 दिन पर कलाकारों की नई मंडली मंच संभालती है। इस मंच पर सरकार की ओर से अच्छी प्रोत्साहन राशि और मदद भी दी जाती है। कलाकार कहते है कि ऐसे में यह तो संभव नहीं हो सकता कि सभी कलाकार इस मंच पर ही मंचन कर सकें। कलाकार यहां सवाल उठाते हैं कि क्या इस मंच पर ही अपनी कला का प्रर्दशन करने वाला कलाकार को ही मदद और प्रोत्साहन का हकदार है। इसके आलावा हजारों की संख्या में जो कलाकार अपना घर-परिवार त्याग कर रामलीला के माध्यम से धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे है, वह क्या इसके हकदार नहीं है।मैं इस मंडली में रावण की भूमिका निभाता हूं। यह काम मैं पिछले 40 साल से कर रहा हूं, लेकिन मैं और मेरी मंडली जहां आज से 40 साल पहले थे, वहीं आज भी हैं। हम लोगों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो जाता है। अब इस अवस्था में हम और कोई काम भी नहीं कर सकते। साल में ज्सादा से ज्यादा आठ-दस प्रोग्राम मिल भी जाए तो इस महंगाई के दौर में उससे जीवन गुजारना बहुत मुश्किल हो गया है।
-संगम दूबे, रावण मैं 20 साल से रामलीला में मंचन कर रहा हूं। इस दौरान कभी राम तो कभी किसी का किरदार निभाता रहता हूं। आज हमारी स्थिति बद से बदतर है। मदद तो दूर कोई हमारी तरफ एक बार देखना भी गवारा नहीं करता। हम कलाकारों पर ही पूरी रामलीला टिकी है। आज के दौर में ढूंढने से भी रामलीला के नए कलाकार नहीं मिलेंगे। आज के युवाओं को न ही रामचरति मानस की पंक्तियां याद होंगी और न ही इस बारे में कोई जानकारी। हम लोगों को भी कुछ मदद मिलती तो हमारा भी प्रोत्साहन बढ़ता। शिव शंकर दूबे, राममैं इस मंडली में लक्ष्मण आदि का रोल निभाता हूं। यह काम मैं पिछले दो साल से कर रहा हूं। हम लोग धर्म का प्रचार करने के साथ ही लोगों का भी दिल जीतते हैं, लेकिन सिवाए तालियों के हमें और कुछ नहीं मिलता। हम भूखे मरे या कितना भी अच्छा प्रदर्शन करें। जो हमारे मालिक देते हैं वही हमारा सब कुछ है। यहां न ही कोई मेडल मिलता और न ही कोई प्रोत्साहन।
मुकेश त्रिपाठी, लक्ष्मण मैं चार से से रामलीला से जुड़ा हूं। गुरुजी के साथ रहकर ही मैने सबकुछ सिखा। जो मिल जाता है उसी में खुश हूं। क्योंकि हमारी किस्मत में शायद यही लिखा है लड़का होकर कभी माता सीता बनना और कभी वानर सेना का बंदर बनना। लोग देखकर खुश हो जाते हैं, तालियां बजा देते हैं, लेकिन तालियों से तो पेट नहीं भर सकता। ऐसा तो नहीं है कि कलाकार को भूख नहीं लगती या उसका परिवार नहीं होता। नारद कुमार, सीता