'मेरे दादा के नाम पर है कैम्पियरगंज, उनकी कब्र देखने आई हूं'
'मेरे दादा के नाम पर है कैम्पियरगंज, उनकी कब्र देखने आई हूं'
- विलियम कैम्पियर की पोती हैं जेनिफर बॉल जो कभी नेतवर स्टेट में अंग्रेज अधिकारी थे। - जेनिफर का जन्म नैनीताल में हुआ और बचपन में काफी समय वो गोरखपुर भी रहीं। - उन्होंने अपने बचपन में भारत को आजाद होते हुए देखा और 1956 में वापस ब्रिटेन गई। - कैम्पियरगंज तहसील स्थित नतवर हाउस में बीते बचपन के दिनों की उन्हें सारी बातें याद हैं। - बड़े होने के बाद भी जेनिफर अपने बचपन की यादों को नहीं भूल सकीं और फिर इंडिया पहुंचीं। - गोरखपुर में ही सिविल लाइंस कब्रगाह में दफन हैं उनके दादा सहित 11 पुरखे। इंट्रो फॉन्ट मेंमेरा नाम जेनिफर बॉल है। उम्र है 73 वर्ष। ब्रिटेन की रहने वाली हूं। मेरा जन्म यही आपके इंडिया के नैनीताल में हुआ था। बचपन गोरखपुर में गुजरा। मेरी मां यही आपके गोरखपुर में जन्मी थी। इंडिया की आजादी से पहले मेरे दादा और मेरे पिता बतौर अधिकारी गोरखपुर के नेतवर स्टेट शासन भी किया। दादा जी का नाम का विलियम कैम्पियर था। उन्हीं के नाम पर कैम्पियरगंज रेलवे का का नाम पड़ा। मैं दादा सहित मेरे फैमिली के 11 लोगों की कब्र गोरखपुर में ही है।
नार्मल फॉन्ट में अपनी पुरानी यादों को ताजा करने और अपने पुरखों की कब्र पर श्रद्धा सुमन चढ़ाने गोरखपुर पहुंचीं जेनिफर ने आई नेक्स्ट को ये सब बता कर चौंका ही दिया। दास्तां सुनाते सुनाते जेनिफर मानो पुरानी यादों में खो गई। उन्होंने कहा मैंने अपने बचपन से टीनएज तक के कई साला इसी गोरखपुर में गुजारे। मैंने इंडिया को आजाद होते हुए देखा है। हालांकि इसके बाद 1956 में जब मैं 13 साल की थी, मुझे अपनी मम्मी सिथिंया और पिता विलियम मायर्स के साथ वापस ब्रिटेन जाना पड़ा। 1956 से वर्ष 2000 तक इंडिया बस मेरी यादों का ही हिस्सा था। पहली बार गई थी नैनीतालजेनिफर ने बताया कि ब्रिटेन में मैं एडवोकेट थी और अक्सर ही मुझे बचपन की यादें इस जमीन तक आने के लिए उकसाया करती थीं। वो यादें जिन्हें मैं कभी भूल ही नहीं सकी थी। रिटायरमेंट के बाद वर्ष 2000 में मुझे इंडिया आने का मौका मिला। तब मैं नैनीताल ट्रिप पर गई जहां सेंट मेरीज स्कूल में मेरी प्राइमरी एजुकेशन हुई थी। इसी टूर में मेरे ड्राइवर निशी थे। मैंने उनको बताया कि गोरखपुर में भी मेरे ग्रैंड पेरेंट्स थे मगर वहां कैसे जाना है, वहां कौन लोग मिलेंगे, मुझे पहचानेंगे या नहीं, इसका केाई अंदाज नहीं था। निशी ने प्रॉमिस किया वो गोरखपुर में उनके जाने के लिए प्रबंध करेंगे।
16 साल में तीसरी बार इंडिया का मेरा दूसरा टूर एक साल पहले 2015 में बना। तब मेरे ड्राइवर निशी ने ही मुझे यहां तक पहुंचाया। यहां आने पर मेरी मुलाकात मेरे पिता के लिए नेतवर स्टेट में काम करने वाले स्वर्गीय संत प्रसाद के बेटे शैलेंद्र श्रीवास्तव से हुई। संत प्रसाद अपने बेटे शैलेंद्र से अक्सर छोटी सी प्यारी सी जेनिफर की चर्चा किया करते थे इसलिए शैलेंद्र नाम सुनते ही जेनिफर को पहचान गए। फिर क्या था, जेनिफर को मानो कोई अपना मिल गया। उन्होंने कैम्पियरगंज में जाकर अपने दादा सहित अन्य 11 पुरखों की कब्र पर फूल चढ़ाए। इसके बाद अब फिर उन्हें बचपन की यादें गोरखपुर खींच लाई हैं। जेनिफर शैलेंद्र श्रीवास्तव के ही घर मेहमान हैं। नतवर हाउस देख खुशगुरुवार की सुबह जेनिफर जब कैंपियरगंज तहसील स्थित नतवर पहुंची तो उनके चेहरे में पर ऐसी खुशी बिखरी मानो वो फिर से अपने बचपन में पहुंच गई। उन्होंने बताया कि मैं यहीं अपने मम्मी-पापा के साथ कई साल रही। घर के बरामदे, किचन, डायनिंग रूम, बेड रूम, बागवानी, कुएं आदि के बारे में उन्हें हर एक किस्सा याद था। उन्होंने बचपन से जुड़ी एक दो घटनाओं का भी जिक्र किया। उन्होंने कहा कि जब मैं यहां थी तब बिजली नहीं हुआ करती थी। हालांकि नतवर हाउस की मौजूदा हालत ने उन्हें दु:ख भी पहुंचाया। अंत में उन्हें कहना ही पड़ा कि लोकल एडमिनिस्ट्रेशन को इसे हेरिटेज के रूप में संरक्षित करना चाहिए।
फिर भर आई आंखें बुधवार को जेनिफर सिविल लाइन स्थित अपने पूर्वजों के कब्रगाह पर भी पहुंची थीं। यहां उनके 11 पुरखों को दफनाया गया है, जो आजादी से पहले नेतवर स्टेट के लिए काम किया करते थे। जेनिफर को हर एक का नाम, उनकी डेथ ऑफ बर्थ और रिश्ता पता है। बकरा गाड़ी देख हंस पड़ींजेनिफर को बचपन में नेतवर हाउस में मौजूद बकरा गाड़ी से कुछ ज्यादा ही लगाव था। वह उस पर सवारी करना पसंद करती थीं। स्व। संत प्रसाद ने आजादी के उसे जेनिफर की याद के रूप में आज भी घर में संजो रखा है। उस बकरा गाड़ी को देख जेनिफर हंस पड़ीं। स्व। संत प्रसाद के पुत्र शैलेंद्र श्रीवास्तव ने बताया कि कैंपियर साहब से जुड़ी हर चीज को हम लोगों ने संभालकर रखा है। जेनिफर की बचपन की वो तस्वीर भी उनके पास सुरक्षित है जिस पर वह बकरा गाड़ी पर बैठी हुई हैं। उन्होंने एलबम में वो तस्वीर भी दिखाई।
बचपन में बोलती थीं हिंदी जेनिफर ने बताया कि वे बचपन में टूटी फूटी हिंदी बोल लेती थीं। लेकिन यहां से जाने के बाद हिंदी ऐसी छूटी की अब बिलकुल नहीं बोल पातीं। हालांकि तीन बार आने के बाद अब फिर से हिंदी सीखने की ललक है। इतना जरूर है कि हिंदी आसानी से समझ लेती हैं। शैलेंद्र श्रीवास्तव के परिवार में जेनिफर इस तरह घुल मिल गई हैं कि घर के बच्चे भी उनको अपनों जैसा प्यार देते दिखे।