आजादी की लड़ाई का गवाह है मंदिर
- नवरात्र के पहले ही दिन देवी स्थान पर उमडी भक्तों की भारी भीड
- बंधू सिंह की फांसी ने बढ़ा दी मंदिर की प्रासंगिकता GORAKHPUR : चौरीचौरा क्षेत्र के तरकुलहा देवी माई का मंदिर आज पूर्वाचल के प्रमुख आस्था के केंद्र के रूप में पहचाना जाता है। पूरे साल लाखों लोग इस मंदिर पर आते हैं। मंदिर पर मत्था टेककर मनोकामना मांगते हैं। मनोकामना पूरी होने के बाद बलि देने की परंपरा का पालन करते हुए प्रसाद ग्रहण करते हैं। नवरात्र के पहले दिन यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचे और मातारानी का दर्शन किया। आई नेक्स्ट आज आपको बताने जा रहा है कि मंदिर का इतिहास क्या है और मंदिर की क्या विशेषता है। बंधू सिंह करते थे पूजातरकुलहा मंदिर का एरिया आजादी के पहले डूमरी रियासत के अधीन आता था। यहां से होकर गोर्रा नाला बहता था। यहां पर एक तरकुल के पेड़ के नीचे दो पिंड थे। इसी पिंड को बाबू बंधू सिंह अपने आराध्य देवी के रूप में पूजा करते थे। कहा जाता है कि बंधू सिंह डूमरी स्टेट के राजघराने से ताल्लुक रखते थे। राजघराना त्याग कर जंगल में आकर इस वन देवी की पूजा करने लगे। किवदंती है कि बंधू सिंह माता को प्रसन्न करने के लिए बलि चढ़ाने लगे। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन के समय 1857 की लडाई में बंधू सिंह अंग्रजो के सबसे बड़े दुश्मन बन गए।
बलि से बन गई प्रथा कहा जाता है कि बंधू सिंह गोरिल्ला युद्ध में माहिर थे। वह अंग्रेजों को लेकर जाकर मंदिर में बलि चढ़ा देते थे। पहले अंग्रेजों को लगा कि अंग्रेज सिपाही जंगल में गायब हो जा रहे हैं, लेकिन जब उन्हें हकीकत का पता चला तो वे बंधू सिंह को खोजने लगे। एक व्यापारी की मुखबिरी पर अंग्रेजों ने उनको पकड़ा और 12 अगस्त 1857 को अलीनगर में उनको खुलेआम फांसी दी गई। कहा जाता है कि अंग्रेजों ने छह बार उनको फांसी चढ़ाया, लेकिन हर बार उनकी फांसी का फंदा टूट जाता था। बार-बार इससे आजिज आकर बंधू सिंह ने माता की पूजा छोड़ने की बात कही। इस बार अंग्रेजों ने उनको फांसी देने में सफल हो गए। जिस तरकुल के पेड़ के नीच पिंड था, उसका मत्था टूटकर गिर गया और उसमें से खून की धारा बह चली। इसके बाद माता का नाम तरकुलहा देवी के रूप में प्रसिद्ध हो गया और बलि चढाकर माता को प्रसन्न करने की प्रथा शुरु हो गई। नवमी में लगता है विशाल मेलाचैतराम नवमी को तरकुलहा देवी मंदिर परिसर में विशाल मेला लगता है। यह मेला करीब दो माह तक चलता है जिसमें पूर्वाचल से लेकर देश के कई हिस्सों से श्रद्धालु आते हैं और प्रसाद के रूप में बलि दिये गये बकरे का मीट ग्रहण करते है। कहा जाता है कि यहां बलि देकर प्रसाद ग्रहण करने पर मातारानी खुश होती है।