सामाजिक मुद्दों पर चोट कर खत्म हुआ फिल्म फेस्टिवल
- लास्ट डे दिखाई गई 5 मूवीज
- नेपाल पर बनी डॉक्युमेंट्री में वहां के कल्चर से रूबरू हुए व्यूवर्स GORAKHPUR : क्0वें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के आखिरी दिन मंडे को पांच फिल्मों के जरिए सामाजिक मुद्दों पर चोट की गई। इसमें जहां एक ओर भारत में स्वास्थ्य योजनाओं में हुई जबरदस्त लापरवाही को उजागर किया गया, वहीं पॉलिटिक्स, कम्युनलिज्म और नवउदारवादी गठजोड़ से पैदा हुई सामाजिक हिंसा के प्रति व्यूवर्स को जागरुक किया गया। इन मूवीज में जहां कम्युनल राइट्स और विध्वंस के माहौल में भी मिलीजुली संस्कृति और प्रेम की जद्दोहद दिखी, वहीं मिडिल क्लास फैमिली में मौजूद वर्गीय भेदभाव का सच भी सामने आया। इसके साथ ही पड़ोसी मुल्क के बारे में जानने का मौका भी मिला। इस बार भी दर्शकों की अच्छी-खासी मौजूदगी, सिनेमा, समाज और कला-संस्कृति के फ्यूचर के लिए उम्मीद की किरण नजर आई।फैमिली प्लानिंग स्कीम इज 'समथिंग लाइक अ वार'
फैमिली प्लानिंग स्कीम पर बेस्ड 'समथिंग लाइक अ वार' से फेस्टिवल के लास्ट डे की शुरुआत हुई। क्99क् में बनी दीपा धनराज की बनाई यह मूवी फैमिली प्लानिंग स्कीम में महिला की बलि और फीमेल सेक्सुआलिटी पर बेस्ड बनाई गई थी, मगर इस मूवी ने कई और राज पर से भी पर्दा हटाया। क्980 के दशक में परिवार नियोजन के लिए फीमेल्स पर नोरप्लांट जैसे हार्मोनल निरोधक का इस्तेमाल भी किया गया, जो काफी नुकसानदेह था। इसकी हर जगह आलोचनाएं भी हुई। मूवी टॉपिक को और मजबूती देने के लिए इसमें दो फीमेल के इंटरव्यू भी दिखाए गए, जिससे सरकार की लापरवाही और विदेशी हितों के साथ सीधे जुड़ने के षडयंत्र का पता चलता है।
कई सवालों का जवाब दे गई फिल्में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दौरान हिन्दू, मुसलमान और सिखों ने एक दूसरे के दिलो-दिमाग में दहशत का जो अंधेरा बरपाया था, उसके खिलाफ इन समुदायों की आपसी मोहब्बतों के किस्सों की फिजाओं में गूंज को अजय भारद्वाज ने अपनी मूवी 'मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते' इसको दिखाने की कामयाब कोशिश की। यूथ फिल्म मेकर किसलय की फ्क् मिनट की पहली शॉर्ट फीचर 'हमारे घर' ने मीडियम क्लास फैमिलीज में मौजूद वर्गीय भेदभाव और शोषण को बहुत ही बारीकी से लोगों के सामने पेश किया। वहीं दलजीत अमी की दस्तावेजी फिल्म 'सेवा' अमूल्य साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर की बात करती नजर आई। नकुल सिंह साहनी की फिल्म 'मुजफ्फरनगर बाकी है' दसवें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल की आखिरी फिल्म रही। इसने इंडियन पॉलिटिक्स, कम्युनलिज्म और नए अर्थतंत्र के बीच नापाक रिश्ते को बखूबी उजागर किया।