'मुझे आजाद हवा में सांस तो लेने दो..'
- पिछले एक साल से मुंह खुलने के लिए कराह रही है प्रेमचंद की प्रतिमा
- प्रेमचंद पार्क के सामने हुई थी स्थापित, विवाद की वजह से अब तक नहीं हो सका अनावरण - गोरखपुर यूनिवर्सिटी में कराह रही है प्रेमचंद पीठ आई स्पेशलGORAKHPUR: एक साल से ज्यादा का वक्त बीत गया। कई मौसम आए और चले गए, मगर मैं आज भी उसी हाल में हूं, जैसा एक साल पहले था। न जाने मेरे साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है। मुझे यकीन नहीं होता कि मैं वही प्रेमचंद हूं, जिसे साहित्य की दुनिया के लोग सलाम करते हैं। जब भी साहित्यकारों का जिक्र होता है, तो मेरा नाम भी इसमें जरूर लिया जाता है। मगर न जाने क्यों आज मेरी यह हालत हो गई है। एक अरसा बीत गया है, जिंदगी के कई अहम पल यहीं गुजारे हैं, यहीं कई पात्रों को ढूंढा है, नौकरी भी छोड़ी और स्वाधीनता आंदोलन में भी शामिल हुआ। आज देश के हर उम्र के लोग मेरा साहित्य पढ़ रहे हैं। शहर के इतिहास में इतने योगदान के बाद भी आज मैं उपेक्षित हूं। अब तो मेरे हाल पर रहम खाओ। मुझे आजाद हवा में सांस लेने का मौका तो दो। आखिर मैंने क्या गुनाह किया है जिसकी मुझे सजा मिल रही है। गोरखपुर यूनिवर्सिटी से प्रेमचंद पीठ की विदाई इसलिए हुई कि मैं वर्ण आधारित समाज का विरोधी हूं और प्रतिमा विवाद इसलिए हुआ कि हमें एक खास जाति से जोड़कर देखने का संकीर्ण रवैया अपनाया गया।
यूनिवर्सिटी ने छोड़ा साथमेरे जन्मशती वर्ष में मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने यूनिवर्सिटी में प्रेमचंद पीठ स्थापित करने की बात कही थी। आगे चलकर तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो। शांता सिंह और सुप्रसिद्ध आलोचक परमानद श्रीवास्तव ने प्रयास कर 1990 में प्रेमचंद पीठ स्थापित हुई। गोरखपुर यूनिवर्सिटी में बनी पीठ पर उस पर परमानंद श्रीवास्तव नियुक्त हुए। उनके कार्यकाल तक प्रेमचंद पीठ सक्रिय रही। बड़े और महत्वपूर्ण आयोजन भी किए गए। 1990 में प्रेमचंद और भारतीय उपन्यास ऐसे ही आयोजनों में से एक था। 1995 में परमानद श्रीवास्तव ने यूनिवर्सिटी का साथ क्या छोड़ा, कोई मेरा पुरसा हाल ही नहीं बचा। इस पीठ पर धूल की परत दर परत चढ़ती रही और आज यह हाल है कि कोई इसे पूछने वाला तो दूर, इसके बारे में जानने वाला भी नहीं है। इस मामले में कुछ लोगों का मानना है कि गोरखपुर यूनिवर्सिटी की सांस्कृतिक चित्ति इतनी उदार और समावेशी नहीं है, जो प्रेमचंद के सामाजिक विचारों का ताप सह सके। कयास यह भी है कि प्रो। परमानन्द की प्रसिद्धि और लोकप्रियता से खुन्नस खाकर लोगों ने इस पीठ से मुंह माेड़ लिया।
पहले सम्मान आैर फिरगोरखपुर यूनिवर्सिटी में लोगों ने मेरे साथ जो किया, वह तो किसी तरह से बर्दाश्त कर लिया। वीर बहादुर सिंह जब सीएम थे, तो मेरी स्मृतियों को बचाने के लिए पार्क बनाया। उस परिसर में मेरी एक प्रतिमा पहले से ही लगी हुई थी। उसे हटा कर आदमकद प्रतिमा लगी। संगमरमर की बनी आवक्ष प्रतिमा जनसहयोग से लगाई गई। ट्रेनिंग स्कूल के प्रिंसिपल रहे रमाशंकर शाही के आमंत्रण पर प्रतिमा के अनावरण के लिए मेरी पत्नी शिवरानी देवी को बुलाया गया। 1996 में प्रेमचंद साहित्य संस्थान ने प्रेमचंद निकेतन से प्रेमचंद पुस्तकालय और साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियां शुरू की। तब इतिहासकार प्रो हरिशंकर श्रीवास्तव की प्रेरणा से इस प्रतिमा की तलाश शुरू हुई। दो साल निरंतर प्रयास के बाद प्रतिमा सीमेंट की बोरियों के नीचे दबी क्षतिग्रस्त स्थिति में मिली। प्रतिमा को सम्मान पूर्वक संस्थान के संग्रहालय में रख दिया गया। इस उम्मीद में कि अनुकूल परिस्थिति आने पर प्रतिमा को ससम्मान समुचित स्थान पर स्थापित किया जाएगा। 16वीं लोकसभा चुनाव के समय आचार संहिता लगी थी। इसी दौरान जिले के एक अधिकारी को इल्हाम हुआ कि मेरी प्रतिमा मुक्ति के लिए छटपटा रही है। उन्होंने पुस्तकालय का ताला तोड़कर पार्क के बाहर बने गोलंबर के नीचे जैसे-तैसे प्रतिमा लगा दी। यह नहीं देखा कि वह जगह प्रतिमा के उपयुक्त है या नहीं। बाद में उनका बयान आया कि मेरा कर्तव्य बनता है अपनी जाति के लेखक की प्रतिमा का उद्धार करूं। आश्चर्य यह हुआ कि बाद में पूरे मामले को जातीय रंग देने की कोशिश भी की गई। जिला प्रशासन ने इसे अहमकाना हरकत मानते हुए आचार संहिता के बाद निस्तारण करने की बात की पर अब भी प्रतिमा वैसे ही पड़ी हुई है। उपेक्षित और अनाद्रित। विडम्बना देखिए कि जिंदगी भर मैंने जन्म के संस्कारों के खिलाफ संघर्ष किया, मगर अब मुझे ही जन्म के संस्कारों की दुतरफा मार झेलनी पड़ रही है।
वर्जन13 मार्च 2014 में एक प्रशासनिक अफसर ने लाइब्रेरी में रखी प्रतिमा को ताला तोड़कर बाहर निकाला और उसे स्थापित करने की कोशिश की। हमने उनके तरीके पर विरोध जताया। उस दौरान चुनाव आचार संहिता लगी हुई थी, जिसकी वजह से प्रशासन ने मूर्ति के अनावरण पर रोक लगा दी। इसके बाद हमने जीडीए के अध्यक्ष यानि कमिश्नर को कई बार लेटर लिखा है, लेकिन अब तक इसका उद्धार नहीं हो सका है।
- मनोज सिंह, सचिव, प्रेमचंद साहित्य संस्थान