पहचान के संकट से जुझते युवा
बरेली (ब्यूरो)। युवाओं के सामने सबसे बड़ा संकट पहचान का है। न उन्हें घर में प्यार मिलता है और न बाहर सम्मान। घर में लापरवाह की पहचान है तो बाहर उन्हें बेरोजगार, आवारा और बेकार जैसे तमगों से नवाजा जाता है। ऐसी स्थितियां उन्हें होपलेस बनाती हैं। जरूरत है उन्हें भी सम्मान और स्नेह देने की। अगर यूथ को सम्मान देंगे और अपना नजरिया बदलेंगे तो वे होपलेस नहीं होंगे और अपनी पहचान के लिए भी नहीं जूझेंगे। सोशलॉजिस्ट्स का कहना है कि समाज में बेरोजगार युवाओं को भी सम्मान दें। उन्हें रास्ता दिखाएं ताकि वे लाइफ बेहतर तरीके से जी सकें। वह बेहतर होंगे तो समाज अच्छा बनेगा और समाज अच्छा होने से देश सुंदर बनता है।
रोजगार की कमी
अनफार्चुनेटली किसी को रोजगार का अवसर नहीं मिल पाता तो इसमें उसका अपना दोष न के बराबर होता है। जरूरत है ऐसे यूथ के साथ सम्मान से पेश आने की। आज बड़ी संख्या में युवा वर्ग ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री प्राप्त करते हैं, लेकिन सीमित नौकरी के अवसर उन्हें हताश कर देते हैं।
सवाल करते हैैं परेशान
रमेश का कहना था कि हमारी हमेशा यही कोशिश रहती है कि घर ही नहीं बाहर भी हमें स्नेह मिले। यह सवाल अकसर परेशान करता है कि आजकल क्या कर रहे हो? परेशानी यह है कि बाहर वालों की नजर में वही लडक़े अच्छे हैैं, जिनकी गर्वमेंट जॉब है। संतोष कहते हैैं कि इसी में हम युवा उलझे रहते हैं कि क्या करा जाए, जिससे लोगों के सामने अच्छी इमेज बने। हलांकि घर वाले यह समझने की कोशिश नहीं करते हैं कि स्नेह चाहिए। हमें कोई भी समझने को तैयार नहीं है।
युवाओं से बात की तो काजल ने बताया कि हम अपनी पहचान बनाने के लिए नए-नए स्किल्स सीख रहे हैं। साथ ही लगातार प्रयास कर रहे हैं कि हम जल्द सफलता हासिल करें। इसके लिए खुद को मेंटली और फिजिकली प्रिपेयर करना बहुत चुनौतीपूर्ण हो रहा है। इसके बाद भी मेहनत करने में पीछे नहीं हटते हंै। हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल हमारी इमेज का है। इमेज बिल्डिंग का प्रेशर सभी यूथ पर है। हमारे बारे में पॉजिटिवली कभी कोई नहीं सोचता है। युवाओं के मन की बात
आज के दौर में हम युवा अपनी पहचान बनाने के लिए इधर-उधर भटकते रहते हंै। समाज में और घर में पहचान बन जाए। दिन रात मेहनत करते हैं। सफलता नहीं मिल पाती तो घर और बाहर नाकाम ही बोला जाएगा।
अफजल खान
अगर खुद की पहचान न बन पाई तो न घर में, न बाहर सम्मान मिलता है। घर वाले बोलेंगे कि कुछ करना ही नहीं है। अपनी लाइफ में और बाहर वाले बोलते कि घूमने में माहिर हैं। इसी में हम लोग उलझे रहते हैं कि क्या ककं जिससे इमेज बनी रहे।
खुशबू
यासमीन परवीन, वाइस प्रिंसिपल, जवाहर मेमोरियल गल्र्स इंटर कॉलेज
पेरेंट्स की अपेक्षाएं आजकल बहुत अधिक हैं। वह बच्चों की फीलिंग्स की कद्र नहीं करते हैैं। उनकी बच्चों से अपनी डिमांड्स हैैं। अगर बच्चा उसे पूरा नहीं कर पाता है तो उन्हें लगता है कि वह निकम्मा या नाकारा है। यूथ को समझने की कोशिश करें, उसे नाकारा बिल्कुल न समझें।
रवीन्द्र कुमार, मनोविज्ञानी, क्षेत्रीय मनोविज्ञान केंद्र बरेली