अधिकारी सहेज रहे लोककलाओं की विरासत
- लोक कलाओं के खत्म होते अस्तित्व को सहेज रहे ऊंचे ओहदों पर बैठे कर्मचारी
BAREILLY: वर्तमान समय में लुप्त हो रही उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को संवारने का बीड़ा पर्वतीय समाज के शिक्षित वर्ग और ओहदेदार लोगों ने उठा रखा है। गवर्नमेंट और प्राइवेट जॉब कर रहे लोगों का मानना है कि वर्तमान समय के युवा लोक कलाओं से दूर हो रहे हैं। क्योंकि समाज के सबसे फेमस लोकनृत्य छोलिया के अलावा अन्य लोकनृत्य व गायन कला अपने आखिरी दिन गिन रहे हैं। वर्तमान ग्लैमर वर्ल्ड की चकाचौंध में धुंधला रहे लोक कलाओं के अस्तित्व को सहेजने के लिए प्रबुद्ध वर्ग आगे आ रहा है। आखिर शिक्षित वर्ग का लोक कलाओं को सहेजने के पीछे क्या रीजन है हम आपको बताते हैं। ग्लैमर वर्ल्ड का छा रहा असरलोक हास्य कलाकार मंगल सिंह चौहान ने बताया कि पहाड़ों के अंचल के रग रग में बसे लोक नृत्य व लोक गायन वर्तमान समय में लुप्त हो रहे हैं। धीरे धीरे उनकी विरासत खत्म हो रही है। क्योंकि युवा पीढ़ी पर ग्लैमर वर्ल्ड का नशा छा रहा है। युवाओं को लोक नृत्यों के पहनावे समेत उसकी सधी गायन शैली भी परहेज हो रहा है। ऐसे में उन्हें अपनी विरासत और सांस्कृतिक गरिमा से जोड़ने के लिए जरूरी है कि ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों को लोक कलाओं में रूचि दिखानी होगी। ताकि आने वाली पीढ़ी उसका अनुसरण कर धरोहरों को सहेजने में मदद करें।
सिर्फ गिने चुने ही बचे हैं लोक कला लोक गायक पप्पू कार्की ने बताया कि एक समय था जब उत्तराखंड के सभी जिलों में कई सारे लोक कलाकारों और कलाओं से वादियां गुलजार रहती थी। लेकिन इस समय सिर्फ गिने चुने ही कलाकार और कला प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाएं और टीम शेष हैं। इसमें पिथौरागढ़ में क्0, चमोली में भ्, बरसुंग में 8, बाड्डा में ख्, गुगुली में 8, अल्मोड़ा में ख्, बागेश्वर में म्, टीटी हार्ड में म् टीमें ही बची हैं। यानि कि उत्तराखंड संस्कृति को सहेजने में नैनीताल हल्द्वानी समेत अन्य फेम शहरों में एक भी सांस्कृतिक टीमें नहीं है। जिन जगहों पर लोक कलाओं का बोलबाला है वहां भी केवल परंपरागत त्यौहार के दौरान ही उनकी परफार्मेस होती है। वीरों का प्रतीक है छोलियाउत्तरायणी समिति के माधवानंद ने बताया कि छोलिया राजा महाराजाओं की शान था। इसकी परंपरागत वेषभूषा में चूड़ीदार पायजामा, पैरों में घूंघरू, फ्रॉक नुमा लंबा चोला, कमर पट्टी, सिर पर फूलों से सजी पगड़ी, कलाकारों के चेहरे पर रंग रोगन, ढ़ाल और कृपाण के साथ हाथों में खनकती दमाऊ और नगाड़ों के बीच मशकबीन की मनोहारी धुन संग तुरही का आह्वान रोमांचित करने वाली वीर रस से ओतप्रोत नृत्य शैली है। लेकिन धीरे धीरे यह खत्म हो रही थी। लेकिन इसे पर्वतीय समाज के प्रवासी लोगों के द्वारा सहेजा जा रहा है। सरकारी और प्राइवेट जॉब से जुड़े लोग अपने से ही इस नृत्य को सीख कर परफार्म कर रहे हैं। ताकि वीरों की शान छोलिया की विरासत सहेजी जा सके।