Bareilly: उम्दा लेखक बेहतरीन निर्देशक और करिज्मेटिक एक्टर मतलब मकरंद देश पांडे. इन सबसे पहले वह खुद को विचारक मानते हैं. वह मानते हैं कि अपने अंदर उपजे विचार कलाकार की मौलिकता के लिए संजीवनी होते हैं. बरेली आए मकरंद जहां फिल्मों को बस जरूरत वहीं थिएटर को अभिनय की प्यास बुझाने का साधन मानने हैं. आई नेक्स्ट के साथ उन्होंने अपने और थिएटर के बारे में इंपॉर्टेंट बातें शेयर कीं.


* आपका फैमिली बैकग्राउंड एक्टिंग का नहीं है, फिर एक्टिंग की शुरुआत कैसे हुई? मैं एक मिडिल क्लास मराठी फैमिली से हूं। दरअसल मेरी थिएटर में कोई दिलचस्पी ही नहीं थी मगर एक्टिंग का शौक जरूर था। मुझे नहीं पता कि शौक-शौक में कब मैं एक्टर बन गया। एक्टिंग की ही वजह से थिएटर से इतना लगाव हो गया कि अब इसके बिना लाइफ इमेजिन भी नहीं कर सकता।* फिल्म और थिएटर की एक्टिंग में क्या फर्क है? फिल्मों में कट-कट से मैं बौखला जाता हूं। थिएटर की बात करूं तो एक्टिंग में खो जाता हूं। हां, इतना जरूर है कि फिल्म में किए गए अभिनय को आप 10 साल के बाद भी उठाकर देख सकते हैं जबकि थिएटर के लिए कलाकार को दोबारा उन पलों को जीवंत करना होता है।


* पृथ्वी थिएटर से आपका संबंध बहुत पुराना है कुछ इस बारे में बताएं।

1990 में मैं नाटक 'माहिम की खादी' कर रहा था, तब संजना कपूर ने मुझे देखा और पृथ्वी थिएटर के लिए बुलाया। जब मैं पहली बार पृथ्वी थिएटर पहुंचा, तो जाना कि थिएटर क्या होता है। मराठी मेरी फेवरेट थी, मगर पृथ्वी में दाखिल होने के बाद हिंदी में सर्वाधिक ड्रामा किया। अनुराग बासू और केके मेनन के साथ वहीं एक्टिंग की। * लेखक, निर्देशक और एक्टर, कहां खुद को सौ फीसदी महसूस करते हैं? बतौर लेखक चिंतन मनन मुझे अच्छा लगता है। मजबूत विचार होंगे तभी मैं एक कलाकार के तौर पर दर्शकों तक पहुंच बनाने में सफल हो पाऊंगा। इसके बाद मैं खुद को निर्देशक मानता हूं। Report by: Abhishek MishraPics: Hardeep Singh Tony

Posted By: Inextlive