लाडलों का सितम
इनके लिए तो अपने ही बन गए नासूरजिस पिता ने उंगली का सहारा देकर चलना सिखाया, जिस मां ने आंचल के साए में छुपा कर रखा, आज वे ही बेसहारा हैं। कोई सड़क पर है तो कुछ वृद्ध आश्रम में अपने अंतिम दिन काट रहे हैं। और इसके लिए भी वे दोष बच्चों को नहीं खुद को ही देते हैं कि कहीं उनकी परवरिश में ही कोई खोट रह गई होगी। या फिर उनकी किस्मत ही कुछ ऐसी है जिसमें बुढ़ापे का सुकून नहीं लिखा है। पर फिर भी खुश हैं कि उनके बच्चों को कोई परेशानी नहीं है। कहते हैं हम तो कैसे भी जी लेंगे पर उन्हें कोई तकलीफ न हो। सड़क से पहुंची वृद्ध आश्रम
पति की मौत के बाद तो जैसे सरला सक्सेना के सिर पर दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा। इकलौता बेटा बीमारी में चल बसा। एडवोकेट पति के समय तो भाई, बहन सब उनके अपने थे। पर जैसे ही पति की बीमारी में घर बिक गया तो सबने अपने रास्ते बदल दिए। इसी शहर में उनकी बहन रहती थी और अब उनक ा बेटा शहर का नामी एडवोकेट है। भाई पीडब्लूडी में इंजीनियर हैं पर उनकी सुध किसी को भी नहीं है। एक दिन सड़क पर पड़ी थी तो वृद्ध आश्रम वाले उन्हें आश्रम ले आए। यहां भी उनकी जिंदगी बस कट ही रही है। कभी भी कोई घर के बारे में बात करता तो वह अपने आंसू रोक नहीं पातीं। आश्रम में अपना बेड भी उन्होंने सबसे अलग लगा रखा है। पर क्या करें किसी के घर से जब भी कोई आता है उन्हें अपना सा लगता है। और उसमें ही अपनी खुशी ढूंढ लेती हैं। सरला सक्सेना से बात करने की कोशिश की तो बताया, जब अपनों ने छोड़ा तो कुछ पड़ोसियों ने मदद की। कुछ दिनों तक अपने घर में भी रखा पर जब अपनों ने ही ठुकरा दिया तो गैरों से मदद की उम्मीद कैसे की जा सकती है। वो तो जो कर दें, वह भगवान का प्रसाद है। अब तो यहीं जिंदगी कट जाएगी। मेरा तो सपना ही टूट गया
पत्नी की मौत के बाद छोटे लाल वर्मा के जीने का कोई सहारा ही नहीं रहा। घर में एक बेटी थी जिसकी शादी हो गई। वह अपने पति के साथ बरेली में ही रहती है। दामाद एक निजी बैंक में काम करते हैं पर उनकी फिक्र किसी को नहीं है। साल में एक बार कभी याद आती है तो बेटी का फोन आ जाता है पर वह भी सिर्फ औपचारिकता निभाने के लिए। सोना तराश कर उससे नौलखा बनाने वाले छोटे लाल की जिंदगी अधूरी कहानी की तरह हो गई। कहीं कोई सहारा नहीं दिखा तो वह वृद्ध आश्रम में आ गए। बुढ़ापे की मार थी सो शरीर भी बहुत साथ नहीं देता है। पैरों में अक्सर तकलीफ रहती है। वृद्ध आश्रम की तरफ से ही उन्हें वॉकर लाकर दिया गया। अब वह आसानी से चल पाते हैं। यहीं कुछ बुजुर्ग साथियों के साथ जिंदगी अपनी रफ्तार से चलती जा रही है। छोटे लाल कहते हैं, 'यह वह जिंदगी नहीं है जिसकी मैंने कल्पना की थी। मैंने तो भरे-पूरे परिवार का सपना देखा था। जिसमें बच्चों की किलकारियां हों। बेटियों की चूड़ी की खनक हो। पर अब सब कुछ बदल गया है पर शायद जिंदगी इसी का नाम है। पैरालिसिस में भी देखने नहीं आए बेटे
आश्रम के एक कोने में भगवान की मूरत के सामने रहने वाली गौरा देवी का घर अब यही बन गया है। यूं तो शहर के आलमगिरीगंज की पुरानी घी मंडी में भी उनका घर है। वहां उनके दो बेटे-बहू का भरा-पूरा परिवार रहता है। बेटों का होलसेल का अच्छा-खासा बिजनेस है पर मां को रखने के लिए बेटों के पास जगह नहीं है। 20 साल हो गए, वह कभी किसी के घर किराए पर तो कभी वृद्ध आश्रम में रह लेती हैं। शुरुआत में तो बेटों ने मां को किराए के घर के लिए पैसे दिए, पर बाद में वो भी बंद कर दिया। मां के बूढ़े हाथों ने कुछ पैसे कमाने के लिए दिन-रात मेहनत की। कभी बीज छीलकर दो वक्त की रोटी खातीं तो कभी रुई की बत्ती बनाकर। कुछ साल पहले उन्हें पैरालिसिस का अटैक पड़ा। बेटो को तो पता तक नहीं था। पड़ोसियों ने बताया भी तो किसी ने उनकी सुध नहीं ली। उल्टा बेरुखी ही दिखाई। फिलहाल ओल्ड एज होम में रह रहीं गौरा देवी से जब हमने बात की तो उनकी आंखें छलक आईं। बात करते-करते कभी आंसू तेजी से बह निकलते तो कभी खुद को संभाल लेतीं। दिल का गुबार ज्यों ही ज्यादा निकलता तो आवाज रुंध जाती और शब्द फूटने बंद हो जाते। पैसा था तो सब थे
पांच साल पहले तक सरोज कुमारी सक्सेना एक स्कूल में मैथ्स की टीचर थीं। पूरे मोहल्ले में उनकी अलग पहचान थी। पैसा था तो बेटियां भी घर में आ जाती थीं। सब खुशी से रह रहे थे। पर वक्त की करवट ने अजीब दिन दिखाए। शरीर ने साथ छोडऩा शुरू किया तो रिश्ते-नाते भी दूर होने लगे। निराश होकर उन्होंने वृद्ध आश्रम में शरण ली। उनकी चार बेटियां हैं। दो भतीजे रामपुर गार्डन की कोठियों में रहते हैं। एक बैंक में है और दूसरे की प्रिंटिंग प्रेस है। एक दामाद पंजाब में ट्रांसपोर्टर हैं तो दूसरे का पीलीभीत में बिजनेस है। पर सबने उनसे नाता तोड़ दिया है। जब पूछा गया कि वृद्ध आश्रम में कैसे आ गईं तो मन भारी हो गया। बोलीं, 'कुछ साल पहले जब तत्कालीन सीएम मायावती शहर में आई थीं तो कुछ टीचर्स ने करगैना में वृद्ध आश्रम खोलने की मांग की थी। मैंने उनका नेतृत्व किया था। पर क्या पता था कि मुझे ही उसकी जरूरत पड़ जाएगी। अब तो यहीं का सहारा है, यहां अपने जैसे लोगों के बीच अपना संसार ढूंढती हूं। किसी क ो कुछ पढ़ाती हूं। कभी कोई दुखी होता है तो उसे समझाती हूं। मन ऊबता है तो कुछ किताबें पढ़ लेती हूं। अब तो जिंदगी का आखिरी पड़ाव है.Óबेटों ने ही किया बेघरजगदीश सरन और हृदयेश कुमारी को बेटों ने घर से निकाला तो किराए के मकान में रहने लगे। कुछ दिन तक बेटों ने किराया दिया। फिर वो भी बंद कर दिया। बूढ़े शरीर को जब मेहनत करने में प्रॉब्लम हुई तो पति-पत्नी वृद्ध आश्रम चले आए। अब दोनों यहीं रह रहे हैं। जगदीश एक मिल में एकाउंटेंट थे। अब उनके दोनों बेटे प्राइवेट सेक्टर में सेल्स एग्जिक्यूटिव हैं पर माता-पिता को रखने के लिए किसी के पास जगह नहीं है। जगदीश ने बताया, जितनी पूंजी कमाई थी, वह बेटों को बनाने में ही लगा दी। जो कुछ बचा था, वह भी रिटारयमेंट के बाद इस आस में उन पर लुटाता रहा कि अब तो वे ही पूंजी हैं, भविष्य का सहारा हैं। तो फिर पैसा बचाने की क्या जरूरत। इतने में मां का भी दिल भर आया। कहने लगीं, पता नहीं हमारे संस्कारों में ही कुछ कमी रह गई होगी जो ये दिन देखने पड़ रहे हैं। नहीं तो मेरे बेटे ऐसे नहीं थे। पर खुशी इस बात की है कि बेटी अब भी उनसे मिलने आती है। उसने ही पापा क ो मोबाइल भी दे रखा है। ताकि वह उनसे बात कर सकें। वृद्ध आश्रम के काउंसलर्स जब सर्वे के लिए निकलते हैं तो उन्हें जो भी बुजुर्ग, बेसहारा महिलाएं मिलती हैं, उन्हें आश्रम ले आते हैं। वहीं जो महिलाएं स्वयं आश्रम में आती हैं उन्हें भी यहां शरण दी जाती है।-रीता शर्मा, वार्डन, वृद्ध आश्रम करगैनाआजकल बच्चे अपने पेरेंट्स को साथ में नहीं रखते हैं। उन्हें घर से निकाल देते हैं, ऐसे ही वृद्ध लोगों के लिए यह आश्रम खोला गया है। यहां उनकी हर नीड को ध्यान में रखकर ही उन्हें सुविधाएं प्रोवाइड की जाती है।- गोपाल कृष्ण अग्रवाल,काशीधाम आश्रम हमारी संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति हावी होती जा रही है। हमारे प्राचीन मूल्य कहीं खो गए हैं। लोगों में सहन शक्ति नहीं रह गई है। अब जरूरत आ गई है पुनर्जागरण की। जिसमें संस्कृ ति के आधार पर समाज को फिर से बनाना होगा।-डॉ। एसडी ढौंढियाल, सोशियोलॉजिस्टसंयुक्त परिवारों की जगह एकाकी परिवारों का चलन बढ़ गया है। दो पीढिय़ों के बीच जेनरेशन गैप बढऩे की वजह से बच्चे माता पिता के विचारों से असहमत होकर ही उन्हें घर से निकाल देते हैं। अब जरूरत इसे बदलने की है। -डॉ। नवनीत कौर आहूजा, सोशियोलॉजिस्ट