आधुनिकता में गुम हो रही मासूमियत
BAREILLY: कहावत है कि बच्चे जब मां-बाप के कंधे के बराबर हो जाएं तो समझ लीजिए की वह बड़े हो गए हैं। इसी को बच्चों बड़े होने का पर्याय भी माना जाता है कि वह अब अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं, लेकिन माडर्न दौर में यह कहावत अब पुरानी पड़ती नजर आ रही है। आधुनिकता के युग ने इस कहावत को कहीं दूर पीछे छोड़ दिया है। अब हर पैरेंट्स के मुंह से बरबस ही निकल पड़ता है कि बच्चे कब बड़े हो गए पता ही नहीं चला। जी हां विज्ञान और तकनीकी से परिपूर्ण माहौल में बाल मन की चंचलता ने स्मार्ट चोला धारण कर लिया है। छोटी सी उम्र में वे टेक्नो सेवी हो चले हैं, हाजिरजवाबी तो लाजवाब है, चपलता भी कम नहीं है। कुछ भी नया सीखने की क्षमता ऐसी है कि बड़े-बड़ों को पानी पिला दें। लेकिन इन सभी खूबियों के बीच एक सवाल यह भी उठता है कि कहीं यह स्मार्टनेस इनकी मासूमियत और बचपन तो नहीं छीन रही।
बदलाव जरूरी हैपैरेंट्स के बाद यदि बच्चों के सबसे ज्यादा कोई करीबी होता है तो वह है उनका स्कूल और उनके टीचर्स। ये बाल मन के इस बदलाव को पॉजीटिव रूप में देख रहे हैं। कम्प्यूटर, मोबाइल समेत इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स मौजूदा समय के बच्चों को कहीं अधिक स्मार्ट, क्रिएटिव, ब्रिलिएंट और एक्टिव बना दिया है। वे हर काम को परंपरागत ढंग से करने में विश्वास नहीं रखते। इस छोटी सी उम्र में भी वे अपना तरीका अपना लेते हैं। यही नहीं दूसरों को भी सीख दे रहे हैं कि किसी भी काम को कैसे अलग और अच्छा किया जा सकता है। टीचर्स और प्रिंसिपल्स का मानना है कि घर में जो आधुनिकता का एक्सपोजर व एनवॉयरमेंट है उसमें बच्चों का दिमाग अपनी उम्र से ज्यादा तेज चलने लगता है। क्योंकि किसी भी नई चीज को सीखने और परखने की क्षमता किसी अधेड़ उम्र के मनुष्य से कई गुना ज्यादा होती है। वे आविष्कारिक हो गए हैं और उनके कॅरिअर में यह क्रांतिकारी बदलाव लाता है।
गुम हो रहा है बचपनपॉजीटिव अप्रोच के बावजूद इसके साइड इफेक्ट्स भी उतने ही खतरनाक बताए जा रहे हैं। टीचर्स इस बात को स्वीकारने में कहीं भी गुरेज नहीं कर रहे है कि इन स्मार्ट बच्चों की मासूमियत गुम होती जा रही है। या फिर यूं कहें कुछ ही समय के लिए रहने लगी है। उनका बचपन खत्म होता जा रहा है। इसके लिए जिम्मेदार वे पैरेंट्स को ही मान रहे हैं। पैरेंट्स के पास समय का अभाव है। लिहाजा उनकी जगह लेटेस्ट गैजेट्स ने ली है। जो उनको आज स्मार्ट तो बना रही है लेकिन यह आज उनका कल छिन रही है। वे ज्यादा अग्रेसिव हो चले हैं। जो उनको वायलेंस की तरफ धकेल रही है। सहनशीलता खत्म हो रही है ऐसे में वे निगेटिविटी से घिर जाते हैं और युवा उम्र में ही डिप्रेशन का शिकार हो जा रहे हैं।
एकेडमिक में बने स्मार्ट मौजूदा एक्सपोजर को लेकर एक्सपर्ट्स का साफ मानना है कि बच्चों को स्मार्ट होना चाहिए लेकिन केवल एकेडमिक में। उनके बचपन और मासूमियत को विलुप्त होने से बचाने की जरूरत है, जिसमें भूमिका केवल पैरेंट्स को ही अदा करनी होगी। स्मार्ट बनें लेकिन अपने ट्रेडिशन और मॉरल वैल्यूज को फॉलो करते हुए। और कोई तरीका नहीं है इसके सिवाय। पैरेंट्स लिब्रल तो हुए हैं लेकिन दायरा उन्हें तय करना होगा। कहीं ना कहीं तो रिस्ट्रिक्शंस लगाने ही होंगे, क्या सही है क्या गलत यह इसी उम्र में बताने की जरूरत है। यह पैरेंट्स को तय करना है कि उनहें केवल मॉर्डन एजूकेटेड बच्चा चाहिए या फिर मॉर्डन एजूकेटेड वेल कल्चर्ड बच्चा।