केस वन- महानगर निवासी नरेंद्र मिश्रा (नेम चेंज्ड) के पिता उनके घर पहुंचते ही परेशानियां बताने लगते हैं। घर जल्दी पहुंच जाएं तो बेटे और बेटियों की फरमाइशें, वाइफ की शिकायतें और पड़ोसी बेमतलब की गप्पे मारने आ जाते हैं। ऐसे में यह किसी को दोष देने के बजाय ऑफिस के बाद घर ना जाकर किसी पार्क या सड़क पर घूमना पसंद करते हैं।

केस टू - प्रेमनगर निवासी कविता 36 (नेम चेंज्ड) रिसेप्शनिस्ट हैं। शाम पांच बजे ऑफिस बंद होने के बाद घर जाने के बजाय मॉल में घंटों अकेले बैठकर स्मार्टफोन पर सर्फिंग करती रहती हैं। इनकी ज्वाइंट फैमिली है, जो भी आता है वह शादी की सलाह दे देते हैं। इस वजह से वे घर काफी देर से जाती हैं ताकि किसी की बकवास न सुनना पड़े।

केस थ्री- सुभाषनगर निवासी मनोज कुशवाहा (नेम चेंज्ड)पर कॅरियर को लेकर काफी दबाव में हैं। पारिवारिक स्थिति अच्छी न होने के बाद भी अच्छी पढ़ाई के लिए घरवालों ने काफी पैसे खर्च किए, लेकिन उन्हें अच्छी जॉब नहीं मिल सकी है। घरवाले कुछ कहे न इस वजह से वे घर जाने से कतराने लगे हैं।

BAREILLY: ये तो महज बानगी भर है। इनके जैसे शहर में न जाने कितने लोग होंगे, जो घर जाने के बजाय घर से दूर रहना ही पसंद करते हैं। ये आदतें मेट्रो सिटीज से लेकर अब धीरे-धीरे छोटे शहरों में भी अपनी जड़ें जमा रही हैं। जी हां, साइकियाट्रिस्ट ने इसे 'होम अवे सिंड्रोम' का नाम दिया है। भागदौड़ की जिंदगी में कॅरियर की टेंशन और फैमिली की जिम्मेदारी ने लोगों को इस शिकंजे में गिरफ्त कर लिया है। आइए हम आपको बताते हैं कि कैसे चुपके से हमारे घर में 'होम अवे सिंड्रोम' घर कर रहा है

म्0 परसेंट इसकी गिरफ्त में

प्रेजेंट टाइम में कॅरियर और फैमिली स्ट्रेस होम अवे सिंड्रोम नामक मानसिक बीमारी की वजह बन रही है। साइकोलॉजिस्ट के अनुसार म्0 फीसदी से अधिक लोगों इसकी गिरफ्त में है। यह किसी में एक्टिव और कुछ में साइलेंट स्टेज में रहता है। इसकी चपेट में ज्यादातर मैरिड कपल और ख्ख् से फ्0 एज ग्रुप के यूथ आसानी से आ जाते हैं।

छोटे शहरों में भी बढ़ रहा

साइकियाट्रिस्ट वेस्टर्न कल्चर को बिना सोचे-समझे ही अपना लेने की प्रवृति को ही इसकी सबसे बड़ी वजह मान रहे हैं। उनके मुताबिक वेस्टर्न कल्चर के प्रभाव के कारण लोगों में केयरिंग और शेयरिंग की प्रवृति खत्म होते जा रही है। इसे एबसेंस ऑफ रिस्पांसबिलिटी का स्टेज कहते हैं। इसमें लोग जिम्मेदारियों से भागने को ही समस्या का हल मानते हैं। दूसरी ओर प्रेजेंट में न्यूक्लियर फैमिलीज होने से जिम्मेदारियों का बोझ भी अकेले आदमी पर आ जाता है। ऐसे में पेरेंट्स बच्चों के साथ टाइम स्पेंड नहीं कर पाते और ना ही पेरेंट्स बच्चों को सामाजिक पहलुओं से रूबरू कराते हैं।

सिंड्रोम के लक्षण

साइकियाट्रिस्ट के अनुसार होम अवे सिंड्रोम का पता करना काफी मुश्किल होता है। क्योंकि इसके लिए कोई ब्लड टेस्ट या कोई स्कैंनिंग नहीं बता सकती कि आपके बीच का कोई व्यक्ति अकेलेपन को पसंद करने लगा है। उनके मुताबिक चुपके से घर कर रहे इस सिंड्रोम को पकड़ने के लिए फ्रेंडस, फैमिली को बहुत बारीकी से पड़ताल करनी चाहिए। व्यक्ति की रूटीन लाइफ में जरा सा भी बदलाव दिखे तो उससे जबरदस्ती पूछने के बजाय उसे नोट कर लेना चाहिए। इसके लिए व्यक्ति के ऑफिस से लौटने का समय, खाना खाने वक्त चुप्पी साधे रहना, घर आकर मोबाइल, लैपटॉप, टीवी स्क्रीन पर नजरें जमाए रहना, कुछ भी पूछने पर 'हां और हूं' में ही आंसर देना, कोई काम बताने पर बाद में बताऊंगा जैसे जवाबों पर फैमिली और फ्रेंड्स को गौर करना चाहिए।

गैजेट्स भी वजह

शहर के साइकोलॉजिस्ट और साइकियाट्रिस्ट का मानना है कि प्रेजेंट टाइम में स्मार्ट फोन लोगों को मूर्ख बना रहा है। अपने तक सीमित रहने की भावना ने सामाजिक तानेबाने को तोड़ दिया है। उन्होंने बताया कि इस सिंड्रोम से पीडि़त लोग स्मार्ट फोन, कहीं भी इंटरनेट का इस्तेमाल और ऑनलाइन रहना ही सभी प्रॉब्लम का सॉल्यूशन मानने लगते हैं, जबकि यह लत व्यक्ति की प्रॉब्लम बढ़ाने का काम करती है। क्योंकि इसके लगातार उपयोग करने से एक-दूसरे को समझने और रिश्तों में मजबूती लाने का का मौका नहीं मिल पाता।

प्रॉब्लम्स का सॉल्यूशन निकालें

सिंड्रोम का लक्षण देखते ही शुरू में ही इसका इलाज शुरू कर देना चाहिए। साइकोलॉजिस्ट के अनुसार इसका केवल एक ही उपाय है, पारिवारिक जिंदगी को बढ़ाना। इसके लिए डॉक्टर के पास जाने की जरूरत भी नहीं है बल्कि एक दूसरे को सभी बेहतर ढंग से समझें। इसके लिए सबसे अहम है नाश्ता और खाना पूरा परिवार एक साथ बैठकर करे, ताकि बातचीत का दौर चलता रहे। आपसी मनमुटाव व अन्य बातों पर लंबी बहस चले और बीच का रास्ता पूरी फैमिली मिलकर निकाले। इससे सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक का मिक्सअप होने से इस आदत को डिजॉल्व कर सकते हैं।

आजकल घर की जिम्मेदारियों से भागकर लोग सुकून ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं। मेट्रो सिटीज के तर्ज पर होम अवे सिंड्रोम छोटे शहरों में भी दिखाई देने लगा है। इससे बचने के लिए शेयरिंग ही अकेला इलाज है।

- मीना गुप्ता, साइकोलॉजिस्ट

जिम्मेदारियों से लड़ने के बजाय लोग इससे भागकर सुकून हासिल कर रहे हैं। होम अवे सिंड्रोम से ज्यादातर यूथ पीडि़त हैं। गैजेट्स, न्यूक्लियर फैमिलीज, इरिस्पांसबिलिटी इसकी बड़ी वजहों में से एक है।

- वीके श्रीवास्तव, साइकियाट्रिस्ट

Posted By: Inextlive