'पत्नी वही जो पति को पतित होने से बचाए'
आगरा(ब्यूरो)। इस पर कैकई तेने क्या ठानी मन में, राम सिया भेज रही वन मेंज्भजन पर सभी की आंखे सजल हो गयीं। दशरथ को चिंता सताने लगी कि पुत्र तो वन में रह लेंगे किंतु सीता कैसे वन में सुरक्षित रहेंगी, क्योंकि नारी तो सिर्फ पिता या ससुराल में ही सुरक्षित है। इसके बाद श्रीराम द्वारा गंगा मैया की महिमा और फिर मित्र केवट से मिलाप का प्रसंग। जगत को सहारा देने वाले प्रभु श्रीराम द्वारा केवट का सहारा लेकर नाव पर सवार होने का वर्णन करते हुए जब भजन हुआ मेरी नैया में लक्ष्मण राम, गंगा मैया धीरे बहो ने सभी को आनंदित कर दिया।
केवट द्वारा गंगा पार कराने पर कोई शुल्क या मुद्रा श्रीराम के पास नहीं होने पर वे संकोचित हुए। तब माता सीता ने पत्नी धर्म निभाते हुए उन्हें संकोच से निकाला और अपने हाथ की मुद्रिका प्रदान की। इस मुद्रिका का इतिहास संत विजय कौशल महाराज ने बताया। कहा कि मुद्रिका को ब्रह्माजी ने बनाया था और अपने पुत्र बृहस्पति को दिया। बृहस्पति जी ने इंद्र को दिया। युद्ध में प्राणों की रक्षा करने पर इंद्र ने दशरथ जी को दिया और दशरथ जी ने रानी कौशल्या को। कौशल्या जी ने राजा की प्रिय पत्नी कैकई को दिया और कैकई ने सीता जी को उनकी मुंह दिखाई पर दिया था। संत श्री ने आगे प्रसंग कहा कि मुद्रिका को लेने से केवट ने मना कर दिया और कहा कि प्रभु हमारी जाति तो एक है, क्योंकि जाति जन्म से नहीं कारोबार से होती है। मैं गंगा पार कराता हूं और आप भवसागर पार कराते हैं। सुमंत जी के अयोध्या वापस आने के बाद राजा दशरथ का पुत्र विछोह और उनका देह त्यागते समय अपने पूर्व का पाप कर्म जिसमें उनके हाथों अंधे माता पिता का पुत्र श्रवण मारा गया था, वो सामने आता है। आगे का प्रसंग करते हुए इंद्र पुत्र जयंत का कौओ के रूप में माता सीता के चरणों में चोंच मारना और श्रीराम का उसे सबक सिखाने के लिए तिनके का बाण छोडऩा प्रसंग के बाद जब भजन गूंजा मेरा तार हरी संग जोड़े ऐसा कोई संत मिले तो हर श्रद्धालु झूमने लगा। इस प्रसंग में कथा व्यास ने सीख दी कि जिसका अपराध किया हो क्षमा भी उसी से मांगनी चाहिए। समाज का अपराध करने पर भगवान से क्षमा मांगते हैं यही हम भूल कर देते हैं। आरती और प्रसादी के बाद कथा का समापन हुआ।