कभी-कभी होता है कि कुछ लोगों को अपनी मौत का अंदाज़ा पहले से हो जाता है. भारत की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के साथ भी ऐसा ही हुआ.


भुवनेश्वर में भाषण देने के बाद उन्हें ख़बर मिली कि दिल्ली में उनके पोते और पोती की कार का एक्सीडेंट हो गया और वो अपनी यात्रा बीच में ही छोड़ कर दिल्ली वापस लौट आईं थीं.अगले दिन 31 अक्तूबर 1984 को जाने माने अभिनेता पीटर उस्तिनोव उनका इंटरव्यू लेने वाले थे. ठीक 9 बजकर 12 मिनट पर इंदिरा गांधी ने अपने निवास और ऑफ़िस के बीच के विकेट गेट को पार किया.गेट पर तैनात सब इंस्पेक्टर बेअंत सिंह को देख कर वो मुस्कराईं, लेकिन बेअंत ने अपनी रिवाल्वर निकाल कर उनपर फ़ायर करना शुरू कर दिया.जैसे ही वो ज़मीन पर गिरीं गेट के दूसरी तरफ़ तैनात सतवंत सिंह ने भी अपनी स्टेनगन की पूरी मैगज़ीन उनके ऊपर खाली कर दी. उन दोनों ने स्वर्ण मंदिर पर भारतीय सेना के हमले का बदला ले लिया था.


पांच महीना पहले, 31 मई 1984 की शाम. मेरठ में नाइन इंफ़ेंट्री डिवीजन के कमांडर मेजर जनरल कुलदीप बुलबुल बराड़ अपनी पत्नी के साथ दिल्ली जाने की तैयारी कर रहे थे. उन्हें अगले दिन मनीला के लिए उड़ान भरनी थी, जहाँ वो छुट्टियाँ मनाने जा रहे थे.सफ़र से वापसी

वरिष्ठ पत्रकार और बीबीसी के लिए काम कर चुके पत्रकार सतीश जैकब को भी कई बार भिंडरावाले से मिलने का मौका मिला.जैकब कहते हैं, "मैं जब भी वहाँ जाता था, भिंडरावाले के रक्षक दूर से कहते थे आओजी आओजी बीबीजी आ गए. कभी उन्होंने बीबीसी नहीं कहा. कहते थे तुसी अंदर जाओ. संत जी आपका इंतज़ार कर रहे हैं. वो मुझसे बहुत आराम से मिलते थे. मुझे अब भी याद है जब मैंने मार्क टली को उनसे मिलवाया तो उन्होंने उनसे पूछा कि तुम्हारा क्या धर्म है तो उन्होंने कहा कि मैं ईसाई हूँ. इस पर भिंडरावाले बोले तो आप जीज़स क्राइस्ट को मानते हैं. मार्क ने कहा, 'हाँ'. इस पर भिंडरावाले बोले लेकिन जीज़स क्राइस्ट की तो दाढ़ी थी. तुम्हारी दाढ़ी क्यों नही है. मार्क बोले, 'ऐसा ही ठीक है'. इस पर भिंडरावाले का कहना था तुम्हें पता है कि बिना दाढ़ी के तुम लड़की जैसे लगते हो. मार्क ने ये बात हंस कर टाल दी."

वे कहते हैं, "भिंडरावाले से एक बार मेरी अकेले में लंबी चौड़ी बात हुई. हम दोनों स्वर्ण मंदिर की छत पर बैठे हुए थे, जहाँ कोई नहीं जाता था. बंदर ही बंदर घूम रहे थे. मैंने बातों ही बातों में उनसे पूछा कि जो कुछ आप कर रहे हैं आपको लगता है कि आप के ख़िलाफ़ कुछ एक्शन होगा. उन्होंने कहा क्या ख़ाक एक्शन होगा. उन्होंने मुझे छत से इशारा करके दिखाया कि सामने खेत हैं. सात आठ किलोमीटर के बाद भारत-पाकिस्तान सीमा है. हम पीछे से निकल कर सीमा पार चले जाएंगे और वहाँ से छापामार युद्ध करेंगे. मुझे ये हैरानी थी कि ये शख्स मुझे ये सब कुछ बता रहा है और मुझ पर विश्वास कर रहा है. उसने मुझसे ये भी नहीं कहा कि तुम इसे छापोगे नहीं."4 जून 1984 को भिंडरावाले के लोगों की पोज़ीशन का जायज़ा लेने के लिए एक अधिकारी को सादे कपड़ों में स्वर्ण मंदिर के अंदर भेजा गया. 5 जून की सुबह जनरल बराड़ ने ऑपरेशन में भाग लेने वाले सैनिकों को उनके ऑपरेशन के बारे में ब्रीफ़ किया.रेंगते हुए अकाल तख्त की तरफ़ बढ़नामेजर जनरल कुलदीप बराड़ बताते हैं कि उन्हें अंदाजा नहीं था कि अलगाववादियों के पास रॉकेट लॉन्चर थे.
बराड़ ने बताया, "मैंने उनके कमांडिंग ऑफ़िसर से कहा कि इनकी प्लाटून सबसे पहले सबसे आगे अंदर जाएगी. उनकी प्लाटून सबसे पहले अंदर गई, लेकिन उनको मशीन गन के इतने फ़ायर लगे कि उनकी दोनों टांगें टूट गईं. ख़ून बह रहा था. उनका कमांडिंग ऑफ़िसर कह रहा था कि मैं इन्हें रोकने की कोशिश कर रहा हूँ लेकिन वो रुक नहीं रहे हैं. वो अकाल तख़्त की तरफ़ रेंगते हुए बढ़ रहे हैं. मैंने आदेश दिया कि उन्हें ज़बरदस्ती उठा कर एंबुलेंस में लादा जाए. बाद में उनके दोनों पैर काटे गए. उनकी बहादुरी के लिए बाद में मैंने उन्हें अशोक चक्र दिलवाया."पैराशूट रेजिमेंटऑपरेशन का नेतृत्व कर रहे जनरल सुंदरजी, जनरल दयाल और जनरल बराड़ की रणनीति थी कि इस पूरी मुहिम को रात के अंधेरे में अंजाम दिया जाए. दस बजे के आसपास सामने से हमला बोला गया.काली वर्दी पहने पहली बटालियन और पैराशूट रेजिमेंट के कमांडोज़ को निर्देश दिया गया कि वो परिक्रमा की तरफ़ बढ़ें, दाहिने मुड़ें और जितनी जल्दी संभव हो अकाल तख़्त की ओर कदम बढ़ाएं. लेकिन जैसे ही कमांडो आगे बढ़े उन पर दोनों तरफ़ से ऑटोमैटिक हथियारों से ज़बरदस्त गोलीबारी की गई. कुछ ही कमांडो इस जवाबी हमले में बच पाए.उनकी मदद करने आए लेफ़्टिनेंट कर्नल इसरार रहीम खाँ के नेतृत्व में दसवीं बटालियन के गार्ड्स ने सीढ़ियों के दोनों तरफ मशीन गन ठिकानों को निष्क्रिय किया, लेकिन उनके ऊपर सरोवर की दूसरी ओर से ज़बरदस्त गोलीबारी होने लगी.
कर्नल इसरार खाँ ने सरोवर के उस पार भवन पर गोली चलाने की अनुमति माँगी, लेकिन उसे अस्वीकार कर दिया गया. कहने का मतलब ये कि सेना को जिस विरोध का सामना करना पड़ा उसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी.मजबूत क़िलाबंदीतत्कालीन सेना प्रमुख जनरल ए एस वैद्य ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद स्वर्ण मंदिर का मुआयना करके बाहर निकलते हुए.तेज़ रोशनी का फ़ायदाजनरल बुलबुल बराड़ याद करते हैं, "एपीसी में अंदर बैठे कमांडोज़ को प्रोटेक्शन मिल जाता है. हमारी कोशिश थी कि हम अपने जवानों को अकाल तख़्त के नज़दीक से नज़दीक पहुँचा सकें, लेकिन हमें पता नहीं था कि उनके पास रॉकेट लॉन्चर्स हैं. उन्होंने रॉकेट लॉन्चर फ़ायर कर एपीसी को उड़ा दिया."जिस तरह से चारों तरफ़ चल रही गोलियों से भारतीय जवान धराशायी हो रहे थे, जनरल बराड़ को मजबूर होकर टैंकों की मांग करनी पड़ी.मैंने जनरल बराड़ से पूछा कि क्या टैंकों का इस्तेमाल पहले से आपकी योजना में था ?बराड़ का जवाब था, "बिल्कुल नहीं. टैंकों को तब बुलाया गया जब हमने देखा कि हम अकाल तख़्त के नज़दीक तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं. हमें डर था कि सुबह होते ही हज़ारों लोग आ जाएंगे चारों तरफ़ से फ़ौज को घेर लेंगे. टैंकों का इस्तेमाल हम इसलिए करना चाहते थे कि उनके ज़िनॉन बल्ब या हेलोजन बल्ब बहुत शक्तिशाली बल्ब होते हैं. हम उनके ज़रिए उनकी आंखों को चौंधियाना चाहते थे ताकि वो कुछ क्षणों के लिए कुछ न देख पाएं और हम उसका फ़ायदा उठा कर उन पर हमला बोल दें."वे कहते हैं, "लेकिन ये बल्ब ज़्यादा से ज़्यादा बीस, तीस या चालीस सैकेंड रहते हैं और फिर फ़्यूज़ हो जाते हैं. बल्ब फ़्यूज़ होने के बाद हम टैंक को वापस ले गए. फिर दूसरा टैंक लाए, लेकिन जब कुछ भी सफल नहीं हो पाया और सुबह होने लगी और अकाल तख़्त में मौजूद लोगों ने हार नहीं मानी तो हुक़्म दिया गया कि टैंक के सेकेंड्री आर्मामेंट से अकाल तख़्त के ऊपर वाले हिस्से पर फ़ायर किया जाए, ताकि ऊपर से गिरने वाले पत्थरों से लोग डर जाएं और बाहर निकल आएं."इसके बाद तो अकाल तख़्त के लक्ष्य को किसी और सैनिक लक्ष्य की तरह ही माना गया. बाद में जब रिटायर्ड जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने स्वर्ण मंदिर का दौरा किया तो उन्होंने पाया कि भारतीय टैंकों ने अकाल तख़्त पर कम से कम 80 गोले बरसाए थे.मौत की पुष्टिजरनैल सिंह भिंडरावाले तकरीर करते हुए.मैंने जनरल बराड़ से पूछा कि आपको कब अंदाज़ा हुआ कि जरनैल सिंह भिंडरावाले और जनरल शाहबेग सिंह मारे गए.बराड़ ने जवाब दिया, "करीब तीस चालीस लोगों ने दौड़ लगाई बाहर निकलने के लिए. हमें लगा कि लगता है ऐसी कुछ बात हो गई है और फिर फ़ायरिंग भी बंद हो गई. फिर हमने अपने जवानों से कहा कि अंदर जा कर तलाशी लो. तब जा कर उनकी मौत का पता चला, लेकिन अगले दिन कहानियाँ शुरू हो गईं कि वो रात को बच कर पाकिस्तान पहुँच गए. पाकिस्तानी टीवी अनाउंस कर रहा है कि भिंडरावाले उनके पास हैं और 30 जून को वो उन्हें टीवी पर दिखाएंगे."वे कहते हैं, "मेरे पास सूचना और प्रसारण मंत्री एचकेएल भगत और विदेश सचिव रसगोत्रा का फ़ोन आया कि आप तो बोल रहे हैं कि वो मर चुके हैं जबकि पाकिस्तान कह रहा है कि वो ज़िंदा हैं. मैंने कहा उनकी पहचान हो गई है. उनका शव उनके परिवार को दे दिया गया है और उनके अनुयायियों ने उनके पैर छुए हैं. उनकी मौत हो गई है. अब पाकिस्तान जो चाहे वो बोलता रहे उनके बारे में."इस पूरे ऑपरेशन में भारतीय सेना के 83 सैनिक मारे गए और 248 अन्य सैनिक घायल हुए. इसके अलावा 492 अन्य लोगों की मौत की पुष्टि हुई और 1,592 लोगों को हिरासत में लिया गया.इस घटना से भारत क्या पूरे विश्व में सिख समुदाय की भावनाएं आहत हुईं. ये भारतीय सेना की सैनिक जीत ज़रूर थी, लेकिन इसे बहुत बड़ी राजनीतिक हार माना गया.इसकी टाइमिंग, रणनीति और क्रियान्वयन पर कई सवाल उठाए गए और अंतत: इंदिरा गाँधी को इसकी क़ीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी.

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari