क्या थक गए हैं अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकार?
लेकिन ख़ुद दीनानाथ बत्रा और उनके ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ को कभी भी वही एक काम बार-बार करते हुए दुहराव की ऊब और थकान नहीं होती.
इसीलिए कुछ वक्त पहले वेंडी डोनिगर की किताब ‘एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री ऑफ़ हिंदुइज्म’ के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर करके और प्रकाशक पर लगातार उसे वापस लेने का दबाव डाल कर दीनानाथ बत्रा के ‘आंदोलन’ ने जब पेंगुइन जैसे बड़े प्रकाशक को मजबूर कर दिया कि वह उस किताब की बची प्रतियों की लुगदी कर डाले और भारत में उसे फिर न छापे, तो आपत्ति की आवाजें उठीं लेकिन उसके कुछ वक्त बाद ही जब उन्होंने ‘ओरिएंट ब्लैकस्वान’ को 2004 में छापी गई शेखर बंदोपाध्याय की किताब 'फ़्रॉम प्लासी टू पार्टिशन: ए हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया' पर क़ानूनी नोटिस भेज दिया और उस दबाव में मेघा कुमार की किताब (कम्यूनलइज़्म एंड सेक्सुअल वॉयलेंस सिंस 1969), कई और किताबों के साथ, रोक ली गई तो कोई प्रतिवाद नहीं सुनाई पड़ा. यानी आख़िरकार अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकार थक गए लगते हैं.राजनीतिक वातावरण
2014 बत्रा के राष्ट्रवादी सांस्कृतिक अभियान के लिए सबसे उपयुक्त राजनीतिक समय है. एक व्यापक राष्ट्रवादी सहमति पूरे देश में व्याप्त है. और बत्रा ने मुनासिब मौक़ा देखकर उस मोर्चे पर हमले की शुरुआत कर दी है जिसे आख़िरी तौर पर फ़तह करना उनके लिए सबसे ज़रूरी है.उन्होंने नई सरकार बनते ही एनसीईआरटी को पूरी तरह पुनर्गठित करने, उसके द्वारा संचालित पाठ्यचर्या की समीक्षा की प्रक्रिया को रोक कर नए ढंग से उसे शुरू करने की मांग कर डाली है.अब तक उदार जनतांत्रिक बुद्धिजीवियों की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. वे शायद इंतज़ार कर रहे हैं कि सरकार कोई निर्णय ले, लेकिन इस मसले पर बात करना हम सबके के लिए और हमारे करोड़ों बच्चों के लिए बहुत अहम है.यह समझना ज़रूरी है कि स्कूल की पाठ्यचर्या निर्माण या उसकी समीक्षा दरअसल एक अकादमिक कार्य है और इसमें सर्वोत्तम निर्णय पेशेवर रूप से दक्ष विशेषज्ञ ही कर सकते हैं. यह मसला वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ की शब्दावली में नहीं समझा जा सकता.एनसीईआरटी ने 2005 में जो स्कूली पाठ्यचर्या निर्मित की, वह धर्मनिरपेक्षता या साम्प्रादायिकता के विवाद से अलग हट कर उस शैक्षिक सैद्धांतिक आधार की घोषणा करती है जो बच्चों की शिक्षा के लिए सबसे कारगर हो सकती है.
इस प्रक्रिया के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर यशपाल ने अपनी भूमिका में साफ़ लिखा था, “यह ज़रूरी है कि हम अपने बच्चों को समझ का स्वाद दें. इसके सहारे वे सीख पायेंगे और अपना ज्ञान रच सकेंगे. समझ का यह स्वाद या चस्का उनके वर्तमान को अधिक परिपूर्ण, रचनात्मक और आनंददायी बना सकेगा.”बच्चों का भविष्य
क्या वे इस संघर्ष को तमाशाई की तरह देखेंगे, एनसीईआरटी को अकेला छोड़ देंगे या स्वयं भी अपनी भूमिका निभाएंगे?ध्यान रहे बत्रा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के व्यापक पर्यावरण के अंग हैं. इसलिए बत्रा का प्रभाव मात्र उनका नहीं है.जिसे भी बत्रा का नोटिस मिलता है, उसे पता है कि कल इस पर्यावरण का कोई और हिस्सा उस पर शारीरिक आक्रमण भी कर सकता है. यह कोई कल्पना नहीं है. यह सब कुछ झेला हुआ यथार्थ हैनई सरकार के बनने के बाद उदार भारत के लिए यह पहली परीक्षा होगी उस जनतांत्रिक स्वभाव की जिसके परिपक्व होने के दावे चुनाव के दौरान और उसके बाद किए जाते रहे हैं. देखें, मैदान में कौन-कौन उतरता है!