दुनिया भर में मुर्दे कितनी बड़ी मुसीबत बनते जा रहे हैं?
प्राण छोड़ चुके शरीर का क्या करें?
बहुत से देशों के लिए मुर्दे मुसीबत बन गए हैं। जिन लोगों के प्राण उनके शरीर छोड़कर निकल गए हैं, उनका क्या करें? कहां दफ़नाएं? कैसे जलाएं? अस्थियां कहां रखें?ये ऐसे सवाल हैं, जिनसे बहुत से देश परेशान हैं। हिंदुस्तान भी इन देशों में से एक है। हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि जिस तरह क़ब्रिस्तानों और श्मशानों का विस्तार हो रहा है, उससे तो कुछ साल बाद लोगों के रहने के लिए ही जगह नहीं बचेगी।दफ़नाने की जगह की ऐसी किल्लत हो गई है कि पुरानी क़ब्रें खोदकर उनकी जगह नई लाशें दफ़नाई जा रही हैं। कई यूरोपीय देशों में क़ब्र के लिए ज़मीन इतनी महंगी हो गई है कि ज़मीन से अस्थियां निकालकर उन्हें बड़े गड्ढों में जमाकर किया जा रहा है।अंतिम संस्कार का चलन कब से शुरू हुआ?
हालांकि ये पता नहीं कि इंसानी समाज में लाशों के अंतिम संस्कार का चलन कब से शुरू हुआ। मगर, इतिहासकार थॉमस बताते हैं कि निएंडरथल मानव भी अपने मुर्दों का अंतिम संस्कार करते थे।प्राचीन काल में मिस्र में राजाओं के शव लेप लगाकर पिरामिड में दफ़न किया जाता था। वहीं हिंदू धर्म में गाजे-बाजे के साथ जनाज़ा निकालकर अंतिम संस्कार किया जाता है। लेकिन दुनिया की ज़्यादातर सभ्यताओं मे दफ़न करने का चलन है। चीन के लोग हों या फिर ईसाई और मुसलमान।
लाशों को दफ़्न करने के बाद उन्हें छेड़ा नहीं जाता था। इसे गुज़र चुके इंसान की बेहुरमती माना जाता है। आज भी हर समाज में यही सिखाया जाता है कि लाश से बदसलूकी नहीं होनी चाहिए।पहले हर समुदाय के अपने क़ब्रिस्तान हुआ करते थे। मगर शहरों के विस्तार ने ये भेद मिटा दिया है। थॉमस कहते हैं कि हम मुर्दों को इतना सम्मान इसलिए देते हैं कि हम इंसान के तौर पर अपने इतिहास को समझना चाहते हैं।अपनी परंपराओ को आने वाली नस्लों के हाथों में सौंपना चाहते हैं। इसीलिए क़ब्रों से छेड़खानी बहुत बुरी बात मानी जाती है।यूनान की राजधानी एथेंस में थर्ड सीमेटरी, यूरोप के बड़े क़ब्रिस्तानों में से एक है। यहां काम करने वाले अलेक्ज़ांड्रोस कोर्कोडिनोस कहते हैं कि क़ब्रिस्तान में रोज़ 15 लाशें दफ़्न होने के लिए आती हैं। हाल ये है कि आज एथेंस में रहने की जगह ढूंढना आसान है, दफ़न होने के लिए दो गज़ ज़मीन मयस्सर नहीं।
हर लाश के लिए क़ब्र का जुगाड़ करने के लिए पुरानी क़ब्र को तीन साल में खोदा जाना चाहिए। मगर कई बार लाशें तीन साल में पूरी तरह गलती नहीं हैं। ऐसे में जिनके रिश्तेदार होते हैं, उनके लिए क़ब्रें खोदने का काम बेहद तकलीफ़देह हो जाता है।हर साल एथेंस की थर्ड सीमेट्री से क़रीब पांच हज़ार लाशों को क़ब्रों से बेदखल करके नए मुर्दों के लिए जगह बनाई जाती है। निकाली गई हड्डियों को बक्सों में बंद करके एक इमारत में रखा जाता है। इसे ओसुअरी कहते हैं।मगर, इन दिनों तो ओसुअरी में हड्डियों के बक्से रखने की जगह भी नहीं बची है। इसलिए हड्डियों को एक बड़े से गड्ढे में जमा किया जा रहा है।अब जो लोग कभी-कभी अपने पुरखों की क़ब्रों को देखने, उन्हें झाड़ने-पोंछने और दिया जलाने आते थे, उनके लिए ये सिलसिला हमेशा के लिए ख़त्म हो जाता है। ये बहुत जज़्बाती बात है। जिसके ऊपर बीतती है, वो ही समझ सकता है।उत्तर कोरिया भीतर से कैसा है, पढ़िए आपबीती
ईसाइयों में क्यों शुरू हुआ लाशों को जलाना?
ज़मीन की कमी की वजह से ही ईसाइयों में भी शवों को जलाने का चलन शुरू हुआ था। हालांकि चर्च इसके ख़िलाफ़ थे। लेकिन हालात ने लाशों को जलाने के लिए मजबूर कर दिया।
दिक़्क़त ये है कि पूरे यूनान में एक भी शवदाह गृह नही है। नतीजा ये कि लाशों को दफ़्न करना, यूनान के लिए राष्ट्रीय चुनौती बन गया है। इसीलिए अब ग्रीस में भी एक शवदाह गृह खोला जा रहा है। पर शायद आगे चलकर राख को रखने के लिए जगह भी चुनौती बन जाए।यूनान की तरह ही हांगकांग भी क़ब्रिस्तान के लिए कम पड़ती जगह से परेशान है। चीन के लोगों के बीच अपने पुरखों के बीच वक़्त बिताने का चलन है। हांगकांग में चुंग यूंग नाम का त्यौहार मनाया जाता है। जिसमें लोग खाने-पीने का सामान बनाकर अपने पुरखों के क़ब्रिस्तान जाते हैं और उन्हें चढ़ाते हैं। लोग क़ब्र पर कागज के पैसे और दूसरी चीज़ें जलाया करते हैं। माना जाता है कि ये सामान ये दुनिया छोड़कर जा चुके लोगों को मिल जाता है। जो दूसरी दुनिया में उनके काम आता है।अब जिस देश में रहने के लिए जगह इतनी मुश्किल से मिलती हो, वहां मुर्दे दफ़्न करने की जगह का इंतज़ाम कैसे होता। इसीलिए, हांगकांग में सत्तर के दशक से ही लाशों को जलाने की परंपरा शुरू हो गई थी।
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मुर्दों को गहरी नींद से जगाना!हां, इंसान अपने मरने वाले साथियों को सम्मान से विदाई दे ये ज़रूरी है। क्योंकि यही हमें बाक़ी जानवरों से अलग करता है। हमें सभ्य कहने का मौक़ा देता है।कभी लोग अपने प्रिय लोगों की याद में बड़े-बड़े मक़बरे बनवाया करते थे। जैसे कि ताजमहल या हुमायुं का मक़बरा। और आज ये दौर आया है कि नई लाशों को दफ़्न करने के लिए पुराने मुर्दों को गहरी नींद से जगाना पड़ता है।तो पहले जहां क़ब्रों पर पत्थर लगा करते थे। वहीं अब डिजिटल यादें सहेजी जा रही हैं। कैफ़ी आज़मी ने बहुत ख़ूब कहा था-इंसान की ख़्वाहिशों की कोई इंतेहा नहींदो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद।तो साहब, अब वो दौर है कि मरने के बाद अपनी ख़्वाहिशों को महदूद रखें। इसी में इंसानियत की भलाई है।International News inextlive from World News Desk