जब मैं उत्तर प्रदेश में बदायूं के एक छोटे से गांव में दो चचेरी बहनों के बलात्कर और उसके बाद उन्हें पेड़ से लटकाए जाने के बारे में सोचती हूं तो एक बात मुझे बहुत कचोटती है.


वो बात ये कि क्या इनकी मौतों को रोका नहीं जा सकता था.ये दोनों चचेरी बहनें पिछड़ी जाति की थीं. इसीलिए वो कहीं ज़्यादा प्रभावशाली यादव जाति के उन पुरूषों का निशाना बनीं जिन पर उनके बलात्कार और हत्या के आरोप हैं.ये लड़कियां देर रात शौच के लिए बाहर गई थीं. जिन जगहों पर घर में शौचालय नहीं होते, वहां महिलाएं आम तौर पर अंधेरे में ही शौच के बाहर जाती हैं.वैसे भारत में शहर के मॉल में फ़िल्म देखने जाने से लेकर एक छोटे से कस्बे में साबुन ख़रीदने जैसे साधारण से कामों के लिए बाहर जाना भी महिलाओं के लिए ख़तरा समझा जा सकता है.
रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, जब लड़कियां वापस नहीं लौटीं तो इनमें से एक के पिता ने पुलिस को अपने ग़ायब बच्चों के बारे में जानकारी दी. ड्यूटी पर मौजूद कॉन्स्टेबल ने उन्हें थप्पड़ जड़ दिया और भगा दिया. यह ऐसी बातें हैं  जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता है.'अकेली घटना नहीं'जो समुदाय कमज़ोर समझे जाते हैं, अकसर वे हिंसा और हमलों के आसान शिकार होते हैं.


लेकिन बदायूं की घटना ने दो ऐसे कारकों को उजागर कर दिया है जो इस तरह के अत्याचार में एक जैसे पाए जाते हैं; समय रहते कमज़ोर जातियों के पीड़ितों की जान बचाने में प्रभावशाली जातियों के पुलिस अधिकारियों का इनकार और असहिष्णु सरकार और नागरिक समाज की ओर से कार्रवाई के लिए दबाव डालने की स्थानीय समुदायों की दृढ़ता.बदायूं में ग्रामीण उस आम के पेड़ के चारों ओर एक मजबूत घेरा बनाकर बैठ गए थे. उन्होंने लड़कियों के शवों को तब तक उतारने नहीं दिया जब तक प्रशासन और मीडिया ने इस ओर अपना ध्यान नहीं दिया.आज, उन लड़कियों के परिजनों को धमकियां मिल रही हैं और इन हत्याओं को उन्हीं के सिर मढ़ने की बेहद बेढंगे तरीके से अफवाहें उड़ाने की कोशिशें हो रही हैं.इसी तरह की चीजें बड़े शहरों में बलात्कार की घटनाओं में भी होती हैं: अभियुक्त को बेकसूर ठहारने की मंशा और लड़की के परिजनों पर उनकी हत्या का आरोप मढ़ना.कमज़ोर माने जाने वाले समुदायों के लिए न्याय की क़ीमत ज़्यादा होती है: उन्हें अकसर ही धमकी और हिंसा का सामना करना पड़ता है.हरियाणा भगाना के गांव में चार दलित महिलाओं के सामूहिक बलात्कार  के बाद गांव से 80 परिवार पलायन कर गए और राजधानी दिल्ली में बलात्कार पीड़ितों के साथ अपनी कहानी बयान करने के लिए जमा हो गए.लंबा इतिहास

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) दलितों और आदिवासियों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा का एक अलग श्रेणी में रिकॉर्ड रखता है.इन अपराधों की रिपोर्टिंग ठीक से नहीं होती, लेकिन इसके बावजूद ब्यूरो के 2012 के आंकड़े बताते हैं कि इस वर्ष 651 मामले हत्या के, विवादों में घायल होने वाले लोगों के 3,855 मामले, बलात्कार 1,576 मामले, अपहरण के 490 मामले और आगजनी के 214 मामले सामने आए.हिंसा कितनी व्यापक हो चुकी है और जाति और लैंगिक लड़ाई कितनी विकराल हो गई, इस बात को देश को स्वीकार करना होगा.इस पूरी लड़ाई में पीड़ित पक्ष सबसे ग़रीब, सबसे हाशिये वाला और सबसे खामोश तबका होता है.पिछले सप्ताह दिल्ली में भगाना के परिवारों को उनके प्रदर्शन स्थल से हटा दिया गया था. पुलिस बहुत आक्रामक थीः एक शिकायत में आरोप लगाया गया कि प्रदर्शनकारियों को पीटा गया और पुलिस अधिकारियों ने उनके साथ यौन दुर्व्यवहार भी किया.प्रदर्शनकारियों में अधिकांश महिलाएं थीं. आख़िरकार बातचीत के बाद उन्हें प्रदर्शन करने की इजाज़त दे दी गई.
भगाना गांव के रहने वाले वेद पाल तँवर ने कहा, ''हम अपने गांव नहीं जा सकते. यह संभव नहीं है. वह सुरक्षित नहीं है. हमें अपनी कहानी लगातार बताने के सिवाय कोई चारा नहीं है जब तक कि हमारे समुदाय के लिए कुछ परस्थितियां नहीं बदलतीं.''(निलांजना रॉय न्यूयॉर्क टाइम्स और बिजनेस स्टैंडर्ड में स्तंभाकार हैं और दि वील्डिंग्स और द हंड्रेड नेम्स ऑफ डार्कनेस की लेखिका हैं.)

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari