दुनिया का सबसे बड़ा एटम बम जिसका युद्ध में इस्तेमाल मुश्किल था
ब बिखर चुके सोवियत संघ ने भी शीत युद्ध के ज़माने में एक ऐसा एटम बम बना डाला था, जिसका कोई इस्तेमाल होना मुमकिन नहीं था।
हालांकि इंसानियत के लिहाज़ से ये ठीक ही हुआ। वरना धरती पर भयंकर तबाही मच सकती थी। बात बीसवीं सदी के साठ के दशक की है। दूसरा विश्व युद्ध ख़त्म हो गया था।अमरीका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराकर इसकी ताक़त दुनिया को दिखा दी थी। अमेरिका से पिछड़ गया था सोवियत संघदूसरा विश्व युद्ध ख़त्म होते ही अमरीका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध छिड़ गया था। दोनों देश एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए एक से एक हथियार बना रहे थे।एटम बम के मामले में अमरीका से पिछड़ा सोवियत संघ, एक ऐसा बम बनाने के लिए बेक़रार था, जो दुनिया में सबसे बड़ा हो।
सोवियत संघ के एटमी वैज्ञानिक आंद्रेई सखारोव ने आख़िरकार साठ का दशक आते-आते ऐसा बम तैयार कर ही लिया। इसे नाम दिया गया ज़ार का बम।
ज़ार रूस के राजाओं की उपाधि थी। उन्हीं के नाम पर कम्युनिस्ट सरकार ने इसे ज़ार का बम नाम दिया।ये इतना विशाल एटम बम था कि इसके लिए ख़ास लड़ाकू जहाज़ बनाया गया।अमरीका भी कर रहा था जासूसी
विस्फोट से क़रीब पांच मील चौड़ा आग का गोला उठा था। इसके शोले इतने भयंकर थे कि इसे एक हज़ार किलोमीटर दूर से देखा जा सकता था। इस बम के विस्फोट से धुएं का जो गुबार उठा वो आसमान में क़रीब चालीस मील की ऊंचाई तक गया था और इसने क़रीब सौ किलोमीटर के इलाक़े को ढंक लिया था।
सोवियत संघ
इस एटम बम के परीक्षण से इतनी एनर्जी निकली थी जितनी पूरे दूसरे विश्व युद्ध मे इस्तेमाल हुए गोले-बारूद से निकली थी। इससे निकली तरंगों ने तीन बार पूरी धरती का चक्कर लगा डाला था।
इस बम को तैयार करने में सोवियत वैज्ञानिक आंद्रेई सखारोव का बहुत बड़ा रोल था। सखारोव चाहते थे कि हथियारों की रेस में उनका देश अमरीका से बहुत आगे निकल जाए। इसलिए उन्होंने एटम बम और हाइड्रोजन बम की तकनीक मिलाकर के ज़ार बम तैयार किया था।बम तैयार होने के बाद वैज्ञानिकों के ये डर लगा कि कहीं एटमी टेस्ट इतना भयानक न हो कि उससे सोवियत संघ को ही नुक़सान पहुंचे। इसीलिए इसमें विस्फोटक कम कर दिए गए थे।
इस विस्फोट का असर ये हुआ था कि दुनिया के तमाम देश खुले में एटमी टेस्ट न करने को राज़ी हो गए। 1963 में ऐसे एटमी परीक्षणों पर रोक लगा दी गई।
खोई हुई हीरे की अंगूठी 13 साल बाद गाजर में मिली ख़ुद सखारोव को लगा कि ऐसा बम तो दुनिया में भारी तबाही मचा सकता है। इसलिए वो बाद में एटमी हथियारों के ख़िलाफ़ अभियान के अगुवा बन गए।उन्होंने 1963 में एटमी टेस्ट करने पर लगी आंशिक पाबंदी का खुलकर समर्थन किया। इसके बाद रूस में ही बहुत से लोग उनके विरोधी हो गए।1975 में सखारोव को शांति का नोबेल पुरस्कार मिला।साफ़ है कि दुनिया के सबसे बड़े एटम बम ने तबाही तो नहीं मचाई, मगर इंसानियत को इसके ख़तरों से बख़ूबी आगाह करा दिया। यानी 30 अक्टूबर 1961 को हुए भयंकर एटमी टेस्ट का कुछ तो असर हुआ ही।
खुल गया ड्राइवरलेस कार का भेद, इस रिपोर्टर ने खोज निकाला छिपा हुआ ड्राइवर
International News inextlive from World News Desk