ये कहानी 19 अप्रैल 1943 की है. बेल्जियम में नाज़ियों के एक बंदीगृह से 1631 यहूदियों को ऑश्वित्ज़ के गैस चैंबर में पहुंचाने के लिए एक ट्रेन रवाना हुई.
लेकिन इसका विरोध कर रहे लोगों ने इस ट्रेन को बीच में ही रोक दिया. उस रात इस ट्रेन से एक लड़का भाग निकला था जिसके दिमाग़ में 70 साल बाद भी उस घटना की यादें ताज़ा हैं.फरवरी 1943 में सिमोन ग्रोनोवस्की की उम्र महज़ 11 साल थी. उस वक्त वे ब्रसेल्स में एक गुप्त स्थान पर अपनी मां और बहन के साथ नाश्ता करने के लिए बैठे हुए थे कि तभी नाज़ी पार्टी के दो खुफिया पुलिस अधिकारी वहां आ धमके.उन्हें वहां से प्रतिष्ठित एवेन्यू लुईज़ पर मौजूद नाज़ी पार्टी के मुख्यालय पर ले जाया गया जिसका इस्तेमाल यहूदियों के लिए एक कारावास और पार्टी का विरोध करने वाले लोगों के लिए यातना शिविर की तरह किया जाता था.आज ग्रोनोवस्की इस इमारत से महज दो मिनट की दूरी पर रहते हैं जहां उन्हें दो दिनों तक भूखे-प्यासे बंद रहना पड़ा था.यहूदी होने की सज़ा
उनका कहना है, "मेरे अभिभावकों ने सिर्फ एक ग़लती की थी लेकिन वह बहुत बड़ी गलती थी...उनका जन्म एक यहूदी परिवार में हुआ था और यह उस दौर का सबसे बड़ा अपराध था जिसकी केवल एक ही सज़ा थी और वह थी मौत की सज़ा."
वहां से सिमोन और उनकी मां-बहन को 30 मील दूर बेल्जियम के फ्लैंडर्स प्रांत के मेखेलिन शहर के एक यातना शिविर काजर्ने डॉसिन भेज दिया गया. ग्रोनोवस्की का कहना है, "उस वक्त लोगों को सिर्फ यहूदियों की तरह दिखने पर भी निशाना बना लिया जाता था इसलिए अपने आप को बेहद साधारण तरीके से रखना ही पड़ता था."
वह कहते हैं, "जब तक हमें निर्वासित नहीं किया गया तब तक छोटी गलतियों के लिए भी हमें पीटा जा सकता था और जेल में डाला जा सकता था. कभी-कभी एक कमरे के 100 लोगों को सामूहिक तौर पर सज़ा दी गई और कई बार चाहे दिन हो या रात किसी भी मौसम में घंटों तक हमें बाहर खड़ा कर दिया जाता था."ग्रोनोवस्की का कहना है कि कई क़ैदियों को यही लगता था कि उन्हें देश से निकाल दिया जाएगा लेकिन उन्हें इसका ज़रा भी अंदाजा नहीं था कि उन्हें एक-साथ मौत की सज़ा दे दी जाएगी.18 अप्रैल को सिमोन और अन्य 1,630 लोग जिनमें उनकी मां भी शामिल थी, को यह सूचना मिली की अगले दिन उन्हें ट्रेन से ले जाया जाएगा.
जब जर्मन लोगों ने उनके घर पर छापा मारा था, उससे एक महीने पहले ही उनके पिता लियोन अस्पताल में भर्ती थे. उनकी मां ने यह तुरंत सोच लिया कि वह उन्हें बताएंगी कि वह विधवा हैं.उनकी बड़ी बहन इता का जन्म बेल्जियम में ही हुआ था और वह 18 साल की हो चुकी थीं. उनके पास बेल्जियम की नागरिकता थी इसलिए उन्हें पुलिस का दूसरा समूह अपने साथ ले गया.
आख़िरी यादेंसिमोन अपने माता-पिता और बेल्जियम के ज्यादातर यहूदियों की तरह ही किसी भी देश के नागरिक नहीं थे. उन्हें याद आता है कि आखिरी बार उनकी मां कैसे चीख रही थीं और उनके लिए हाथ हिला रही थीं.वह कहते हैं, "मैं यह समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा है और निर्वासन का क्या मतलब होता है. मैं उस वक्त भी अपनी एक छोटी सी दुनिया में था जहां मैं एक स्काउट था.""मैंने खुद ही मन ही मन में सोचा, अलविदा ब्रसेल्स, बेल्जियम, मेरे पिता, मेरी प्यारी बहन, मेरा परिवार और मेरे दोस्त." ट्रेन के भीतर की हालत बेहद भयानक थी.
ग्रोनोवस्की कहते हैं, "हमें जानवरों के झुंड की तरह एक डिब्बे में भर दिया गया था. उसमें खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं था. वहां बैठने के लिए न कोई सीट थी और न लेटने के लिए कोई फ्लोर. मैं अपनी मां के साथ गाड़ी के पिछले हिस्से में दाहिने कोने पर था. वहां बेहद अंधेरा था."मेखेलिन से निकलने के बाद 20वें कन्वॉय पर बेल्जियन रेजिस्टेंस के तीन युवा सदस्यों ने हमला कर दिया जिनके पास एक पिस्तौल, रेड पेपर और एक लालटेन थी.उन्होंने ख़तरे के निशान के तौर पर लाल रोशनी दिखाई और ट्रेन के ड्राइवर को तेज़ी से ब्रेक लगाने के लिए मजबूर कर दिया.
दिखाई दिलेरीदूसरे विश्व युद्ध के दौरान ऐसा पहली बार हुआ था जब निर्वासित यहूदियों को ले जा रही नाज़ियों की गाड़ी को रोक दिया गया था.नाज़ियों का विरोध करने वाले रॉबर्ट मेस्ट्रिआओ ने भी उस भयानक पल का जिक्र अपने वृत्तांत में लिखा है. जर्मनी के ट्रेन गार्ड और तीन युवाओं के बीच हुई हल्की-फुल्की गोलीबारी के बाद फिर से ट्रेन चलने लगी.कुछ खुले वैगन के जरिए भाग गए उसके बाद बाकी लोगों का मिज़ाज भी तुरंत बदला. जो लोग भागने के बारे में सिर्फ सोचते थे उन्होंने तुरंत भागने का इरादा कर लिया.करीब एक घंटे बाद सिमोन के वैगन में मौजूद लोगों ने दरवाजे को तोड़ने में कामयाबी हासिल कर ली. दरवाजा खुलते ही डब्बे में ठंडी हवा आई जहां सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था.
मां ने दिया सहाराउनकी मां ने 100 फ्रैंक का एक नोट दिया जिसे उन्होंने मोड़ कर अपने मोज़े में घुसा लिया. उसके बाद उन्होंने अपने बेटे को दरवाज़े की ओर धकेल दिया. वह कहते हैं, "मेरी मां ने मुझे मेरे कंधे की तरफ से पकड़ कर धकेला था. मैं खुद ट्रेन से कूदने की हिम्मत नहीं कर सकता था क्योंकि ट्रेन बेहद तेज़ चल रही थी.""एक जगह पर मैंने यह महसूस किया कि ट्रेन की रफ़्तार थोड़ी धीमी हो गई. मैंने अपनी मां से कहा कि मैं अब कूद सकता हूं. उन्होंने मुझे कूदने में मदद की."
वह कहते हैं, "थोड़ी देर के लिए मैं जड़वत स्थिति में खड़ा रहा. मैंने यह देखा कि ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है. अंधेरे में बड़ी काली आकृति से भाप निकलता हुआ दिख रहा था."उस रात एक स्टॉप पर ट्रेन कुछ सेंकंड के लिए रुकी और जर्मनी के गार्ड ने फिर से सिमोन की ही दिशा में गोलीबारी करनी शुरू कर दी.उनका कहना है, "मैं अपनी मां के पास वापस जाना चाहता था लेकिन जर्मनी के सिपाही मेरी ओर ही बढ़ रहे थे. मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि मैं क्या करूं. मैं एक ढलान की ओर बढ़ा और वहां से पेड़ों की तरफ़ दौड़ने लगा."
फटे और कीचड़ से सने कपड़ेसिमोन पूरी रात जंगलों और खेतों के रास्ते दौड़ते रहे. वह कहते हैं, "मुझे जंगलों का अंदाजा था क्योंकि मैं बच्चों के स्काउट में रहा था. मैं खुद को शांत करने के लिए 'इन द मूड' गाना बुदबुदा रहा था जिसे मेरी बहन पियानो बजा कर गाती रही थी."सिमोन ब्रसेल्स और अपने पिता लियोन के पास जाना चाहते थे. सिमोन को यह अंदाज़ा जरूर था कि वह सुबह तक गिरफ़्तार हो सकते हैं और उन्हें किसी की मदद की ज़रूरत भी होगी.फटे और कीचड़ से सने हुए कपड़े पहने सिमोन ने एक गांव में एक घर के दरवाजे पर दस्तक दी और वहां एक महिला से कहा कि वह अपने दोस्तों से साथ खेल रहे थे और वह गुम हो गए हैं.वह महिला उन्हें स्थानीय पुलिस अधिकारी के पास ले गई. सिमोन को पहली बार उस पुलिस को देखकर डर लगा था. उस पुलिस स्टेशन में ट्रेन से भागने वाले तीन लोगों का मृत शरीर भी पड़ा था.
नेक इन्सानहालांकि जॉन अर्त्ज नाम के पुलिसकर्मी ने सिमोन के साथ कुछ बुरा नहीं किया. उसकी पत्नी ने उन्हें खाना और साफ कपड़े दिए.उस अर्त्ज ने सिमोन को ब्रसेल्स तक जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया जहां वे शाम को पहुंच गए. सिमोन रात में अपने पिता से मिले. हालांकि जब तक युद्ध चलता रहा तब तक दोनों बाप-बेटे अलग-अलग कैथोलिक परिवारों के साथ छिपकर रहे.सिमोन की मां को ऑश्वित्ज़ के गैस चैंबर में भेज दिया गया. सिमोन की 18 साल की बहन भी ऑश्वित्ज़ गई और उनकी वहां मौत हो गई.20वां कन्वॉय इस लिहाज़ से अनूठा था कि पहली बार निर्वासित लोगों को बचाने की कोशिश की गई थी. कुछ सूत्रों के मुताबिक इस गाड़ी से आई 70 फीसदी महिलाओं और लड़कियों की मौत गैस चैंबर में हो गई थी.इस ट्रेन को रोकने वाले एक युवक युरा लिव्सचित्ज़ को पकड़ लिया गया जिसे बाद में फांसी की सज़ा दे दी गई. दूसरे शख्स जीन फ्रैंकलेमन को गिरफ़्तार करके एक यातना शिविर में भेज दिया गया जहां से वह मई 1945 में रिहा हुए. उनकी मौत साल 1977 में हुई. राबर्ट मेस्ट्रियो को मार्च 1944 में गिरफ्तार किया गया. बाद में वह रिहा हुए और वर्ष 2008 तक जीवित रहे.जॉन अर्त्ज को येरुशलम में "नेक गैर-यहूदी" घोषित किया गया. लियोन ग्रोनोवस्की की मौत युद्ध खत्म होने के कुछ महीने के भीतर ही हो गई.सिमोन ग्रोनोवस्की ने आगे वकालत को करियर के तौर पर चुना क्योंकि नाज़ियों ने उनका शोषण करने की कोशिश की थी. उन्होंने कानून का सहारा लेकर ही इसका सामना किया. आजकल वह ब्रसेल्स में रहते हैं और अब तक वकालत करते हैं. अब तो वह दादा भी बन चुके हैं.
अनुभव कर रहे हैं साझाकरीब 50 सालों तक उन्होंने अपने अतीत के बारे में कुछ नहीं बोला. बेल्जियम के एक इतिहासकार और बेल्जियम में यहूदियों के उत्पीड़न मसले के विशेषज्ञ मैक्सिम स्टीनबर्ग ने उन्हें एक किताब लिखने के लिए प्रोत्साहित किया.अब वह स्कूलों में नियमित तौर पर इस पर बात करते हैं. वह बच्चों से कहते हैं, "मेरे साथ जो हुआ उसके बारे में मैं बात करता हूं ताकि आप अपने देश में स्वतंत्रता की रक्षा कर पाएंगे."वह कहते हैं, "मैं यह बताना चाहता हूं कि 'शांति' और 'दोस्ती' जैसे शब्द बेहद महत्वपूर्ण हैं. हर तरह की यातनाओं, भेदभाव और मुश्किलों के बीच मैं उन लोगों का सम्मान करता हूं जिन्होंने मेरी ज़िंदगी बचाई मसलन जॉन अर्त्ज ने मेरी सुरक्षा की और कैथोलिक परिवारों ने युद्ध के दौरान मुझे बचाया, मेरी मां जो मेरे लिए पहली जाबांज महिला हैं."सिमोन ग्रोनोवस्की और उनकी तरह ही कुछ और लोगों की कहानी कजर्ने डॉसिन म्यूज़ियम और डॉक्यूमेंटेशन सेंटर ऑफ द होलोकॉस्ट ऐंड ह्यूमन राइट्स में बताई जा रही है जो दिसंबर में खुला.इस संग्रहालय को तैयार करने में 2.5 करोड़ यूरो का खर्च आया है. इसमें 20वें कन्वॉय के लोगों की 1,200 तस्वीरें भी हैं.
Posted By: Satyendra Kumar Singh