क्या नेपाल एक बार फिर एकमात्र हिंदू राष्ट्र की अपनी पहचान हासिल कर सकता है?
संक्षेप में इसका जवाब यह होगा कि राजशाही के फिर से कायम होने या न होने की तरह ही तरह ही है. हालांकि इसकी संपूर्ण व्याख्या ज़्यादा जटिल है.आधुनिक दिखने वाले नेपाली अब भी उन दिनों को याद करते हैं जब सार्वजनिक जीवन में हिंदुत्व के प्रभुत्व पर सवाल नहीं उठाए जाते थे.पढ़िए पूरा लेखनेपाल एकमात्र राजनीतिक सत्ता है जहां उच्च जाति के हिंदू (ब्राह्मण और क्षत्रिय) सबसे बड़ी संख्या में (आबादी का करीब एक तिहाई) हैं.देश के मुख्य न्यायाधीश की देखरेख में अतिरिक्त-संवैधानिक प्रबंध के तहत जनादेश के लिए नवंबर 2013 में चुनाव करवाए गए.इसके परिणाम काफ़ी मज़ेदार निकले. हिंदू राजशाही के तहत काम कर चुकी पार्टियों को दो तिहाई बहुमत मिला.
ऐसी पार्टी जिसने खुलकर हिंदू राष्ट्र की पुनर्स्थापना का वादा किया था और जिसका चुनाव चिन्ह पवित्र गाय था, वह दूसरे संविधान सभा चुनाव में तीसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी.इसने हिंदूवादी शक्तियों को प्रोत्साहित किया और भारत में उग्र हिंदुत्ववादी पार्टी के नरेंद्र भाई मोदी की जीत से यह उत्साह बना रहा.हिंदुत्व की स्वीकार्यता
इसके बाद 2008 में चुनी गई संविधान सभा ने राजशाही को समूल समाप्त कर दिया. हिंदू धर्म ने शाह साम्राज्य को पैदा किया था, राजनीति पर इसके एकाधिकार की समाप्ति ने राजतंत्र को ख़त्म कर दिया.राजपरिवार के विश्वासपात्रों के बहुत छोटे से समूह (जिसमें गोरखा सरदार, महल के दरबारी, शाही पुजारी और गुरू और शाह-राणा वंश के नाते-रिश्तेदार थे) के अलावा बहुत ही कम लोगों को उम्मीद या डर था कि पूरी तरह आप्रसांगिक हो चुके राजतंत्र की पुनर्स्थापना हो सकती है.हालांकि देश की धार्मिक पहचान के रूप में हिंदुत्व की बहाली की अब भी व्यापक स्वीकार्यता बनी हुई है.नेपाल के इतिहास पर सरसरी नज़र मारने से इस हिमालयी देश पर हिंदू धर्म के प्रभाव को समझा जा सकता है.
इतिहासराजा पृथ्वी या मुख्यतः उनके ब्राह्मण पुजारियों और शिक्षकों (जो काशी, प्रयाग, उज्जैन और हरिद्वार जैसे तीर्थस्थलों की अनगिनत बार यात्रा करते रहते थे) ने यह सटीक अनुमान लगा लिया था कि अगर वह मध्य पहाड़ों पर हमला करें तो उत्तर-दक्षिण या पूर्व-पश्चिम से प्रतिरोध का ख़तरा बहुत कम था.फिर भी सुरक्षात्मक प्रबंध के तहत गोरखा शासक ने खुद को सनातन धर्म का रक्षक घोषित कर दिया जिससे उन्हें भ्रमणकारी साधुओं का विश्वास प्राप्त हो गया जिनका हिंदू क्षेत्र के करोड़ों लोगों में ख़ासा प्रभाव था.
जब पृथ्वी ने 1768 में काठमांडू घाटी के मल्ला राजाओं को हरा दिया और अपना राजदरबार बसंतपुर के मनोहर दरबार चौक में स्थानांतरित किया तो उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी कि उनका राज्य ही असली हिंदुस्थान (हिंदुओं का असली घर) है. ऐसा करीब ढाई सदी तक चलता रहा.
विदेशी सहायता प्रदान करने वाले मुख्यतः पश्चिमी देश हैं. नेपाली सेना को संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों से काफ़ी सहायता मिलती है.हिंदुत्व को फिर स्वीकार करने की घोषणा का अंतरराष्ट्रीय समुदाय में स्वागत होने की आशंका कम ही है.और तो और भारतीय जनता पार्टी के मुख्य तत्व होने के बावजूद भारत सरकार भी नेपाल पर हिंदुत्व को लेकर बहुत अधिक दबाव नहीं बनाएगी क्योंकि इससे पहाड़ों की जनजातीय आबादी के नाराज़ होने का ख़तरा है और बड़ी संख्या में गोरखा लड़ाके भारतीय सेना में भी हैं.ऐसा लगता है कि नया संविधान बनाने को लेकर पीईओएन की मुख्य रणनीति मिश्रित भावनाओं की ही रहेगी.अंतरिम व्यवस्था के विपरीत संभवतः धर्मनिरपेक्षता सर्वोच्च कानून के मूलभूत आधारों में शामिल न रहे. यह भी हो सकता है कि प्रस्तावना में हिंदू शब्द का प्रयोग न हो.
इस ख़ामोशी का मतलब यह निकलेगा कि मौजूदा व्यवस्था के उलट वाला भाव विजयी हुआ है. इस तरह नेपाल एक हिंदू राष्ट्र बना रहेगा- इसका ऐलान किए बग़ैर.
जब धर्म की जड़ें हिंदुत्व की तरह गहरी और फैली हुई हैं तो राजनीति के वृक्ष की टहनियों और पत्तियों को धर्मनिरपेक्षता की ऊपरी मृदा पर फलने के लिए छोड़ देना चाहिए.भारतीय संविधान के निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने सही कहा था, "हिंदू समाज 'वास्तव में अलोकतांत्रिक' है और असली धर्मनिरपेक्ष परंपराओं से विवाहित भी है."ऐसे में सिर्फ़ एक ही सवाल पैदा होता है कि नेपाल महात्मा गांधी के हिंदुत्व को अपनाएगा या उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे के हिंदुत्व को स्वीकार करेगा.राजनीति के धर्म के बजाय धर्म की राजनीति के चलते सर्वोत्कृष्ट के लिए उम्मीद, प्रार्थना और तैयारी ही की जा सकती है.
Posted By: Satyendra Kumar Singh