वो मुझे मारते रहे और ख़ुदा मुझे बचाता रहा: तासीर
बीबीसी उर्दू की नौशीन अब्बासी को दिए एक ख़ास इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि अपहरणकर्ताओं ने उन पर बहुत ज़ुल्म किए। लेकिन इसके बावजूद ख़ुदा को उनकी ज़िंदगी मंज़ूर थी और वो उन्हें बचाता रहा। उन्होंने ये भी बताया कि वो किस तरह बिना फ़िरौती अदा किए रिहा हुए और घर पहुँचे। साक्षात्कार के अंश
जब आप को अग़वा कर के ले गए तो क्या उन्होंने आपको प्रताड़ित किया?
उन्होंने मुझे शुरू में कोड़े मारने शुरू किए। तीन-चार दिनों में उन्होंने मुझे पांच सौ से ज़्यादा कोड़े मारे। इसके बाद मेरी कमर ब्लेडों से काटी। प्लास लेकर मेरी कमर से मांस निकाला। फिर मेरे हाथों और पैरों के नाख़ून निकाले। मुझे ज़मीन में दबा दिया। एक बार सात दिनों के लिए और एक बार तीन दिनों के लिए। फिर सिर्फ़ तीन दिन के लिए वो मुझे भूखा रखते थे। मेरे पहरेदारों का रवैया बहुत बुरा था। उन्होंने मेरा मुंह सूई धागे से सी दिया। उन्होंने मुझे सात दिन या शायद दस दिन तक खाना ही नहीं दिया। मुझे सही से याद नहीं है कि कितने दिन। मेरी टांग पर गोली मारी गई। मैं बहुत ख़ुश किस्मत हूं कि वो मेरी हड्डी को नहीं लगी और निकल गई। मेरे मुंह पर शहद की मक्ख़ियां बिठाईं गईं ताकि मेरे परिजनों को दिखा सकें कि मेरी शक्ल बिगड़ गई है। मुझे मलेरिया हो गया लेकिन मुझे दवाई नहीं दी गई।
वो फ़िल्म बनाने के लिए यातनाएं देते थे। मुझे एक दिन पहले ही कहते थे कि तैयारी करो कल ये होगा। मैं उनसे कहता था कौन सी तैयारी करूं, कैसे तैयारी करते हैं? मुझसे कहते थे कि कल तुम्हारे नाखून निकालेंगे। मैं पूरी रात नमाज पढ़ता था, नमाज के बाद निफ़्ल और निफ़्ल के बाद दुआ फज्र तक। मुझे लगता था कि वो मुझे चाहे जितना भी मारे, अल्लाह मेरी रक्षा कर रहा है, एक खोल में रखा हुआ है और वो उस खोल में दाख़िल नहीं हो सकते हैं। न उनके शब्द और न ही उनके जिस्म।
आपकी रिहाई के लिए क्या कोई फ़िरौती दी गई?
नहीं, मैं वहां से भाग गया था। जेल में मुझे एक आदमी मिला, उसने मेरी मदद की, मुझे कचलाक पहुंचाने तक और कचलाक से मैंने अपने परिवार से संपर्क किया और उसके बाद सेना ने मुझे लिया और लाहौर पहुँचाया। मैंने पैसे तो नहीं दिए लेकिन जाते हुए मैंने उनके दस हज़ार रुपए ज़रूर लिए थे।
क्या आप ये बताएंगे कि आपको कितनी अलग अलग जगहों पर रखा गया और कितने समूहों के हवाले किया गया?
मैं सिर्फ़ एक समूह के साथ था और वो था इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ उज़्बेकिस्तान। मैं सिर्फ़ एक ही ग्रुप के पास रहा। उनके पास उस समय तक रहा जब तक अफ़ग़ान तालिबान और उज़्बेक ग्रुप की समर्थन को लेकर लड़ाई नहीं हुई थी। ये इसलिए हुआ था क्योंकि उज़्बेको ने इस्लामिक स्टेट के साथ जाने का फ़ैसला कर लिया था। क्योंकि उनकी नज़र में वो सही ख़िलाफ़त थी न कि अफ़ग़ान तालिबान की। तब मैं अफ़ग़ान तालिबान के हाथों में आ गया। मगर वो ख़ुद भी नहीं जानते थे कि मैं कौन हूँ। मैंने उन्हें बहुत बार कहा कि मैं उज़्बेक नहीं हूँ। वो कहते थे कि मैं उज़्बेक ही हूँ और मैंने उनके साथ लड़ाई लड़ी थी और इसलिए पकड़ा गया था इसलिए मुझे जेल में फेंको। तो ग्रुप तो इन उनके बीच लड़ाई से पहले एक ही था। दूसरा तो उस वक़्त तब्दील हुआ था। जिसकी वजह से ही मैं अलहमदुलिल्लाह रिहा हो सका।
मुझे लाहौर से वो मीर अली लेकर गए जो वज़ीरिस्तान में है। और मीर अली से मुझे हर महीने अलग-अलग स्थानों पर ले जाते रहते। मैं मीर अली में जून 2014 तक था। तब उज़्बेकों ने कराची एयरपोर्ट पर हमला किया था। उन्हें पहले से पता था कि सरकार और फ़ौज बदले की क्या कार्रवाई करेगी। इसलिए उन्होंने मुझे स्वाल भेज दिया जिसका रास्ता शायद दत्ता खेल से जाता है। वहां मैं फ़रवरी 2015 तक रहा।
इसके बाद मुझे गोमल के रास्ते अफ़ग़ानिस्तान के ज़ाबिल ले जाया गया। वो जगहें बदलते रहते थे। कहीं एक महीने कहीं दो महीने। एक बार में ड्रोन हमले की वजह से डेढ़ साल तक एक परिवार के साथ रहा. किसी को पता ही नहीं था कि मैं कौन हूँ और शायद अफ़वाह भी उड़ी थी कि शहबाज़ तासीर ड्रोन हमले में मर चुके हैं। लेकिन अलहमदुलिल्लाह मैं बच गया।
मैं एक ड्रोन हमले की ज़द में था, ये उस वक़्त था जब अल क़ायदा के एक सीनियर कमांडर अबू याह्या अल लबी को ड्रोन हमले में मारे गए थे। मुझे तो बहुत बाद में पता चला। मैं उसके साथ ही एक दूसरे कमरे में था। जब ड्रोन हमला हुआ तो छत और दीवार मेरे ऊपर गिरी। लोग आए, उन्होंने मुझे देखा। मैं मलबे में दबा था। मिट्टी में अटा था लेकिन मेरा दम घुटा और मुझे खांसी आ गई।एक उज़्बेक ने मुझे देखा और कहा कि इन लाशों को गाड़ी में डाल दो। इस तरह उसने मुझे दुनिया से भी छुपा दिया। मै इतना ज़्यादा घायल था कि दो महीने तक चल भी नहीं सकता था। उसने मुझे सब बताया कि तुम्हारे साथ अबु याह्या अल लबी था। वो जब मरा तो वो भूमिगत कमरे में था। आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई ड्रोन हमले में बच गया हो। वो ख़ुद ये कहना नहीं चाह रहा था कि अल्लाह ने तुम्हें बचाया है। मैं बहुत ख़ुश किस्मत था कि मैं दो ड्रोन हमलों में बचा। एक जेट हमले में मैं बम गिरने की जगह से सिर्फ़ सौ मीटर दूर ही था। मुझे नहीं मालूम कि मैं आपके सामने कैसे ज़िंदा सलामत बैठा हूँ।
जैसा कि मैंने बताया कि उज़्बेक का समर्थन अफ़ग़ान तालिबान को था। जब ये ऐलान हुआ कि मुल्ला मोहम्मद उमर की मौत हो चुकी है तो उन लोगों ने कहा कि अफ़ग़ान तालिबान की कोई वैधता नहीं रही। इराक़ और सीरिया में ख़िलाफ़त का ऐलान हो चुका है, अबु बक़र अल बग़दादी ख़लीफ़ा हैं, अमीर हैं और हम उनका समर्थन करते हैं। इससे उनमें आपस में तनाव हो गया। अफ़ग़ान तालिबान ये समझते हैं कि मुसलमानों का अमीर सिर्फ़ अफ़ग़ान तालिबान में से ही हो सकता है और उसे पठान होना चाहिए, पश्तून। इसके अलावा कोई भी उन्हें स्वीकार्य नहीं है।
जब उज़्बेक ने उनकी क़ानूनी हैसियत का विरोध किया तो उन्होंने उन्हें ही ख़त्म कर दिया। पूरे समूह को ख़त्म किया। पूरे नेतृत्व को ख़त्म किया। तीन दिन वहां सिर्फ़ मौत थी। मुझे वहां से भागने का मौक़ा मिला और मैं भाग गया। मुझे पहाड़ पर चढ़ते हुए अफ़ग़ान तालिबान ने पकड़ लिया। वो समझे की मैं उज़्बेक हूँ। वो मुझे मारते हुए नीचे ले आए। मुझे दूसरे उज़्बेकों के साथ क़ैदी बनाकर साथ बिठाया। फिर एक गांव में भेजा गया, जहां काज़ी आए और उन्होंने सज़ाएं सुनाईं। हमें छह महीने से दो साल तक की सज़ाएं सुनाई गईं और एक अफ़ग़ान जेल में भेजा गया। उधर, मुझे एक अफ़ग़ान तालिबान मिला, उसने मेरी मदद की। उसमें थोड़ा वक़्त लगा। दो-तीन महीने। लेकिन उसने मेरे लिए एक रास्ता खोला जिसकी वजह से मैं जेल से निकला और अफ़ग़ानिस्तान से कचलाक मोटरसाइकिल से आया। उसमें मुझ आठ दिन लगे।
एक रात रमज़ान के महीने में शवाल के इलाक़े में बहुत तेज़ बमबारी हो रही थी। दो बजे शुरू हुई थी. वहां रात को बहुत ठंड थी। रात को मुझे कहा गया यहां से निकलना है। एक शख्स को औरतों और बच्चों को सुरक्षित ठिकाने पर पहुँचाना था। वो औरतें सभी बच्चों को नहीं उठा सकीं। मुझे भी कहा गया था कि ख़ुद ही बचना है। अगर भागे तो ख़ुद ही ज़िम्मेदार होगे। तीन बच्चे घर में ही रह गए। मैं उन्हें लेने वापस भागा। मैंने दो बच्चों को उठाया एक बच्ची मेरे साथ भागते हुए आई। वो बहुत डरी हुई थी। पहले वो चारपाई के नीचे से नहीं निकल रही थी। मैं वहां से निकल कर दो पहाड़ों के बीच सुरक्षित स्थान पर पहुँचा ही था कि औरतें आईं और मुझसे बच्चे लिए और मेरा शुक्रिया अदा किया। उनको पता था कि मैं उस वक़्त भाग सकता था। लेकिन मेरी मानवता उस समय मुझे इजाज़त ही नहीं दे रही थी कि अपनी जान बचा लूं और तीन बच्चों को छोड़ दूं। ख़ुदा का शुक्र है कि कुछ नहीं हुआ लेकिन ये नहीं हो सकता कि मैं किसी तरह ज़िम्मेदारी महसूस करूं कि वो मर गए और मैंने कुछ नहीं किया। इसलिए मैं वापस गया और उन्हें लाकर उनके परिजनों के हवाले कर दिया। जो कि मुझे अग़वा करने वाले का परिवार था।
नहारी खाई जो सच है। कचलाक रेस्त्रां में कुछ नहीं खाया। आर्मी कंपाउड में आया तो उन्होंने कहा कि कुछ चाहिए, कॉफ़ी-पानी तो मैंने कहा नहारी। मुमकिन हो तो लाहौर से मंगवा दें नहीं तो मैं आपकी बलोच नहारी भी खाने को तैयार हूँ।
मैं बहुत सालों बाद ऐसे मुकाम पर पहुँचा हूं जहां अपने भविष्य का फ़ैसला ख़ुद कर सकता हूँ। इसलिए मैं बस दोस्तों से मिल रहा हूँ। परिवार के साथ वक़्त बिता रहा हूं। मैं एक-एक कदम करके ज़िंदगी जी रहा हूँ। जब मैं यहां आ रहा था तो हम बर्फ़ानी तूफ़ान में फंसे थे और लग रहा था कि मर जाएंगे लेकिन उस वक़्त मैं ख़ुद को कहता रहा कि एक क़दम और सही। इस वक़्त मेरी ज़िंदगी भी ऐसी ही है मैं एक-एक क़दम उठा रहा हूँ।