आध्यात्मिक होने के लिए किसी धर्म का पालन जरूरी नहीं: सद्गुरु जग्गी वासुदेव
एक दिन अगर, आपका अनुभव आपके मन की सीमाओं से परे उठ जाता है, तो श्रद्धा अपने आप पैदा होती है। जबकि विश्वास विकसित की हुई चीज है। श्रद्धा घटित होती है। या अगर इसे एक और तरह से कहें, विश्वास दिमाग में जबरन कुछ बैठाना है, जबकि श्रद्धा दिमाग को धोकर साफ और स्पष्ट बनाना है! श्रद्धा का संबंध इस बात को पहचानने से है कि सृष्टि में एक ऐसी बुद्धिमत्ता मौजूद है जो हमारे सीमित तर्क से परे है और इसका संबंध उस तक पहुंच बनाने से है। लेकिन अभीदुर्भाग्य से, श्रद्धा को कट्टर धर्मान्धता के रूप में गलत समझा जाता है। आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए आपको थोड़ी श्रद्धा चाहिए, लेकिन विश्वास नहीं। श्रद्धा एक गहन आंतरिक अनुभव से पैदा होती है। इसमें कोई लाभ-हानि की गणना शामिल नहीं होती, कोई कार्यसूची या लक्ष्य नहीं होता, कोई सिद्धांत तय नहीं होता, कोई गारंटी नहीं होती। साथ ही, हमें धार्मिक और आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के बीच के अंतर को समझना होगा।
जब आप संगठित धर्म के किसी भी रूप से संबंध रखते हैं, तब आप एक विश्वास करने वाले इंसान होते हैं। जब आप एक आध्यात्मिक मार्ग पर हैं, तब आप खोज करने वाले एक साधक होते हैं। इन दोनों में क्या अंतर है? जब आप कहते हैं, 'मैं विश्वास करता हूं' तो आप मूलत: यह कह रहे हैं कि 'मैं यह स्वीकार करने को इच्छुक नहीं हूं कि मैं नहीं जानता।' जबकि एक साधक यह स्वीकर करने को तैयार है कि वह नहीं जानता। विश्वास करने वाला इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। जो चीज अभी तक उसके अनुभव में नहीं है, उसके बारे में वह निष्कर्ष निकाल लेता है। खोजने का मतलब है कि आपको एहसास हो गया है कि आप अपने ही जीवन की मूलभूत प्रकृति को, या इस सृष्टि के स्रोत को नहीं जानते। आप नहीं जानते कि आप कौन हैं, आप कहां से आए हैं, आप कहां जाएंगे। जब आप 'मैं नहीं जानता' की अवस्था में होते हैं, तब आप जीवंत, जवाब देने योग्य, बच्चे सरीखे होते हैं, आपका किसी से टकराव नहीं हो सकता।
मनुष्य की बुद्धिमत्ता ऐसी है कि यह आपको जीवन के बारे में अचरज में डालती है। जिस पल आप अचरज के इस गहन भाव को एक तय निष्कर्ष से बदल देते हैं, तब आप जानने की सारी संभावनाओं को ही खत्म कर देते हैं। विश्वास में, आपके पास एक नए तरह का आत्मविश्वास होता है, लेकिन बिना स्पष्टता के तय निष्कर्ष खतरनाक हो सकता है, आपके खुद के लिए और दुनिया दोनों के लिए। दुनिया में टकराव अच्छे और बुरे के बीच नहीं है, जैसा कि अक्सर इसे दर्शाया जाता है। टकराव हमेशा एक आदमी के विश्वास और दूसरे आदमी के विश्वास के बीच होता है, चाहे वह परिवार के अंदर हो, या दो देशों के बीच हो। जिस पल आप किसी चीज में विश्वास करते हैं, आपका टकराव एक विपरीत विश्वास से होता है। आप इसे मध्यस्तता की बातचीत से टाल सकते हैं। लेकिन टकराव होना लाजिमी है। आध्यात्मिक होने के लिए आपको किसी धर्म का पालन करने की जरूरत नहीं है।
अक्सर यह शिकायत सुनाई पड़ती है कि आज की पीढ़ी धार्मिक नहीं है, यानी इसके विश्वास पिछली पीढ़ी की तरह नहीं हैं। निजी तौर पर मेरी कामना है कि और ज्यादा युवा किसी विश्वास को न मानने वाले हों। यह दुनिया में एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है जब युवा उस चीज में विश्वास कर लेते हैं जो उनके पिता कहते हैं। युवा सिर्फ तभी युवा होते हैं जब वे किसी चीज में विश्वास नहीं करते। उन्हें खोजने के लिए इच्छुक होना चाहिए, उनमें खुद से जानने की ललक होनी चाहिए। अगर वह ललक गायब हो गई है, तो आप उन्हें युवा अब और कैसे कह सकते हैं? वे बूढ़े हो गए हैं!आध्यात्मिक प्रक्रिया का मतलब है कि आप खुद के साथ पूरी तरह से ईमानदार हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि किसने क्या कहा-चाहे वो कृष्ण हों, जीसस हों, गौतम बुद्ध हों, या भगवान या उनके पैगम्बर। युवाओं की ऊर्जा का और बेहतर तरीके से हो सकता है इस्तेमाल: सद्गुरु जग्गी वासुदेवमहत्वपूर्ण यह है कि आपने जीवन कितने 'शानदार' तरीके से जिया: सद्गुरु जग्गी वासुदेव
हो सकता है कि वे सच कह रहे हों, लेकिन आपने वह अनुभव नहीं किया है। आप उनकी बात पूरे आदर से सुन सकते हैं, लेकिन फिर भी आप नहीं जानते। जब आप यह देखते हैं कि आप नहीं जानते, तभी आप एक ऐसे मार्ग पर चल सकते हैं जो वहीं से शुरू होता है जहां आप हैं। लेकिन एक विश्वास करने वाले से भिन्न, आप अंतिम मंजिल के बारे में कोई कल्पना नहीं करते। चूंकिआपने मार्ग पर कम से कम एक कदम ले लिया है, तो आपको इसके बारे में थोड़ी समझ है, आप यह देख सकते हैं कि यह आपके लिए काम कर रहा है या नहीं? तो, आपकी बुद्धि के काम करने के लिए अब भी मौका है। लेकिन अगर आपने अपनी मंजिल के बारे में निष्कर्ष निकाल लिया है, तो बुद्धि के लिए कोई मौका नहीं रहा, इसका परिणाम ठहराव है।