अब प्रश्न यह उठता है कि क्या शरीर को आराम देने वाले सभी साधनों उपकरणों पदार्थों की उपस्थिति मात्र ही सुख का आधार है या सच्चे सुख का अर्थ इनसे कुछ भिन्न है?


आज के युग में रहने वाले तथाकथित आधुनिक लोगों को अपने 'सोशल स्टेटस' अर्थात अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा की बड़ी चिंता रहती है और इसी वजह से समाज की आंखों के सामने आज जिनके पास बड़ा घर, चमचमाती गाडि़यों का बेड़ा, शरीर को आराम देने वाले अति आधुनिक भौतिक साधन, नौकरों की फौज और पार्टियों, होटलों, सिनेमाघरों में आवागमन है, वह सम्पन्न एवं सुखी माने जाते हैं। बदकिस्मती से आज का मानव ऐश-ओ-आराम की इस भ्रामक धारणा में ऐड़ी से चोटी तक जकड़ा हुआ है और सुख के इन साधनों को जुटाने में वह दिन-रात एक कर रहा है। आज रोजमर्रा के सामान्य कामकाज, स्वयं करने वाले व्यक्ति को अक्सर यह अवांछित सलाह मिलती है कि अरे, आप और यह कार्य क्यों कर रहे हैं! इन छोटे-मोटे कार्यों के लिए किसी नौकर को रख क्यों नहीं लेते?


इतना सब होने के बाद भी इतनी मेहनत क्यों कर रहे हैं। अपने दो पैर रूपी मोटर-साइकिल पर दौड़ने वालों को भी अक्सर यह नसीहत मिल जाती है कि भाई एक गाड़ी क्यों नहीं ले लेते, कब तक यूं ही पगडंडियां मापते रहोगे, अब तो तुम्हारे ऐश-ओ-आराम के दिन हैं। सुविधाओं में कुछ बढ़ोतरी कर ली जाए। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या शरीर को आराम देने वाले सभी साधनों, उपकरणों, पदार्थों की उपस्थिति मात्र ही सुख का आधार है या सच्चे सुख का अर्थ इनसे कुछ भिन्न है? आखिर क्या है उसके पीछे और क्या होना चाहिए इसका हल? परमात्मा कहते हैं की शाश्वत आनंद वो ही पा सकता है, जो ईश्वर का बनकर उनसे संबंध स्थापित कर लेता है और उस संबंध से जो सच्चा सुख मिलता है उसे परमानंद कहा जाता है, जो सदाकल के लिए हमारे भीतर रहता है, जबकि भौतिक जगत का तथाकथित सुख तो क्षणिक मात्र होता है, जो साधन का कुछ समय प्रयोग करने के बाद ड्डब पैदा करने लगता है और फिर मन नए-नए साधनों के पीछे भागने लगता है। उसे ये भी चाहिए होता है और वो भी, परन्तु भारत की संस्कृति कहती है कि नया नौ दिन और पुराना सौ दिन।

इस सृष्टि में पुराने से पुराना कौन? अवश्य ही इसका उत्तर होगा ईश्वर, क्योंकि वह अविनाशी है, हमारे रंगमंच पर आने से पहले भी और बाद में भी उसकी निर्देशक की भूमिका गुप्त रूप में चलती रहती है। अत: हमें इस तथ्य को गहराई के साथ समझना लेना चाहिए कि सच्चा सुख और चैन निश्चित ही उस एक ईश्वर के सान्निध्य में है, उनकी ही गोद में और उनकी ममता भरे आंचल में है। उसको अपना सर्वस्व मान लेने से आत्मा मालामाल हो जाती है, उसकी सर्व शक्तियों की उत्तराधिकारी बन आंतरिक और बाहरी अभावों से सदा के लिए दूर हो जाती है और उसी के समान वंदनीय, सम्माननीय, पूजनीय बन जाती है। तो आइये, आज से हम ऐश-ओ-आराम की प्रचलित और भ्रामक धारणा को तोड़ दें और ईश्वर के प्रेम में सच्चे सुख और शांति का अनुभव करें। इसी में जीवन का सुख है और इसी में सच्ची शांति भी।-राजयोगी ब्राह्माकुमार निकुंज

Posted By: Vandana Sharma