मोह और घृणा दोनों ही मनुष्य के लिए घातक है
इसलिए कहा गया है कि मोह और घृणा ही संसार में सर्व दु:खों का मूल कारण हैं। आध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य मोह को नष्ट करके स्मृतिलब्धा बनना अर्थात ईश्वरीय स्मृति में लीन हो जाना है। सरल शब्दों मे इसका अर्थ हैं शरीर, संबंध, पदार्थ, नाम, मान, शान सभी से उपराम होकर राम की स्मृति में खो जाना। परन्तु इस स्थिति की प्राप्ति में मोह रूपी जाल जितना मानव को फंसाता है, घृणा भी उतनी ही मोटी दीवार बनकर उसके मार्ग में रुकावट डालती है। और इन दोनों नकारात्मक भावों की उत्पत्ति का कारण है देह-अभिमान।
जी हां! देह की स्मृति से मानव कुछ के प्रति पसंद और कुछ के प्रति नापसन्दगी उत्पन्न कर लेता है, जिसके फलस्वरूप, जिनको वह पसन्द करता है उनके राग में और जिनको नापसन्द करता है उनके प्रति घृणा में वह फंसता जाता है। यदि वह आत्मिक भाव को दृढ़ता से धारण करे और हर समय इस स्मृति से कार्य-व्यवहार और सम्बन्ध-सम्पर्क में आए कि हम सभी एक पिता की संतान आपस में आत्मिक भाई-भाई हैं, रूप में अजर, अमर, अविनाशी ज्योति बिन्दु आत्मा हैं और इस विशाल सृष्टि रंगमंच पर मेहमान हैं, तो इस भावना से देह की दृष्टि समाप्त हो जाती है और राग और घृणा के झुकाव और टकराव से सुरक्षा प्राप्त हो जाती है। ऐसा व्यक्ति फिर साक्षी द्रष्टा, समदर्शी, उपराम, सर्वस्नेही, सर्व उपकारी और सर्वप्रिय बन जाता है।ऐसे पहचान करें असली और नकली इंसानों की: ओशोजानवर फर्क करना नहीं जानते तो इंसान क्यों, इस कहानी के माध्यम से जानें
यह बहुत स्वाभाविक सी बात है कि मनुष्य को जिसके प्रति मोह होता है, उसे उसकी याद स्वत: ही आती रहती है और जिसके प्रति घृणा या दुश्मनी होती है उसकी भी बहुत याद उसे स्वत: आती है। अब विचार करने योग्य बात यह हैं की जिस व्यक्ति से हम इतनी नफरत करते हैं कि उसको देखते ही संकल्पों में उबाल-सा आ जाता है और भगवान के बदले उस व्यक्ति की तस्वीर दिल दर्पण पर छा जाती है, फिर भी हम उसे इतना याद क्यों करते हैं। जब स्थूल आंखों के सामने हम उसे आने ही नहीं देना चाहते हैं तो मन की आंखों से उसे फिर क्यों देखते हैं? किसी को बुरा समझना वैसे तो पाप माना जाता है, पर फिर भी यदि वह सचमुच बुरा है तो उसे बार-बार याद करना उससे भी बड़ा पाप है और उसके कारण फिर परम कल्याणकारी परमात्मा को भूलना तो महापाप है। अत: इस वृत्ति से बचने का सरल उपाय यही हैं कि हम यह याद रखें की इस संसार में कोई भी व्यक्ति हमारा शत्रु नहीं है, अपितु शत्रु तो पांच विकार हैं और कोई हमारा सच्चा मित्र नहीं है क्योंकि वास्तविक मित्र तो हमारे सद्गुण ही हैं। अर्थात जीवनभर हमने जो भी अच्छे या बुरे कर्म किए हैं वे ही समय के साथ-साथ हमारे सामने आते जाते हैं।राजयोगी ब्रह्माकुमार निकुंज जी