भारत विरोधी और जिहादी साहित्य पाकिस्तान में न सिर्फ़ प्रकाशित हो रहा है बल्कि आसानी से उपलब्ध भी है. इसे कोई भी हासिल कर सकता है.


ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह प्रांत के शहर पेशावर में ज़्यादातर स्टॉलों पर पत्र-पत्रिकाओं के अलावा प्रतिबंधित जिहादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद का मासिक अख़बार अल-क़लम और अफ़ग़ान क्लिक करें जिहाद से जुड़ी 'शरियत' जैसी पत्रिकाएं खुलेआम बिकती हैं.आप इन पत्र-पत्रिकाओं को न सिर्फ़ पेशावर में ख़रीद सकते हैं बल्कि ये देशभर में उपलब्ध हैं.साल 2003 में पूर्व सैन्य शासक परवेज़ मुशर्रफ़ के शासनकाल में सरकारी प्रतिबंध के बाद क़रीब छह क्लिक करें प्रतिबंधित संगठनों ने सरकार की आंख में धूल झोंकने के लिए अपना नाम बदल लिया था.वे अब भी देश भर में जिहादी साहित्य का प्रकाशन और वितरण बिना किसी रोक-टोक के जारी रखे हैं.महिलाएं, युवा और बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए कम से कम तीन भाषाओं में कई पत्रिकाएं छप रही हैं, जिनके ज़रिए विशेष जिहादी विचारधारा फैलाई जा रही है.'हरकत' का अख़बार
एक मासिक जिहादी अख़बार और पत्रिका के संपादक ने अपनी पहचान न बताने की शर्त पर बीबीसी को बताया कि ''पश्चिमी ताकतों और भारत के ख़िलाफ़ नफ़रत बढ़ाने और सांप्रदायिकता फैलाने वाला यह साहित्य' पाबंदी के बावजूद कैसे लोगों तक पहुंचाया जा रहा है.


उनका कहना है, ''इन पत्र-पत्रिकाओं को लोगों तक पहुंचाने के लिए ज़िलास्तर, प्रांतस्तर और यहां तक कि क़स्बों में भी दफ़्तर खोले गए हैं. वहां ये पत्र पत्रिकाएं कार्यकर्ताओं को दी जाती हैं. फिर कार्यकर्ता इन्हें गांवों, क़स्बों और शहरों में लोगों में बांटते हैं.''जिहादी अखबार जुमे यानी शुक्रवार के दिन देश भर की कई मस्जिदों में खुलेआम उपलब्ध होते हैं.इस्लामाबाद में मौजूद लाल मस्जिद का जब चक्कर लगाया गया, तो वहां से अख़बार 'अल-निसार' हासिल हुआ, जो प्रतिबंधित जिहादी संगठन हरकत उल मुजाहिदीन से संबंधित है.इसी संगठन ने सबसे पहले सोवियत संघ के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान की जंग में हिस्सा लिया था. प्रतिबंध के बाद अब इसका नाम अंसार उल उम्मा रख दिया गया है. संगठन के मुताबिक़ इस ग़ैरमान्यता प्राप्त अख़बार की हर महीने 30 से 35 हज़ार प्रतियां छपती हैं'अहम हथियार'

मस्जिद के बाहर 43 रुपए कीमत वाले इस अख़बार को बेचा नहीं जा रहा था बल्कि इसके बदले जिहाद के लिए खुलेआम चंदा मांगा जा रहा था.इसके एक पाठक का कहना था, ''धार्मिक अख़बारों में उलेमा के बयान सही तरीके से छपते हैं. मीडिया उलेमा के बयान प्रकाशित नहीं करता. जितना भी मीडिया देश में मौजूद है, वह मानकर चलता है कि धार्मिक बयान नहीं छापने हैं.''


ग़ैरक़ानूनी जिहादी साहित्य न सिर्फ़ पाकिस्तान में बंट रहा है बल्कि इसका प्रकाशन भी पाकिस्तान में ही हो रहा है. ऐसी सामग्री छापने वाले कई संगठनों से बीबीसी ने बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने बातचीत से इनकार कर दिया.इससे पहले कई प्रकाशनों पर कार्रवाई हो चुकी है, इसलिए प्रकाशक अब सतर्क हो गए हैं. ऐसे ही एक 'ग़ैरक़ानूनी अख़बार' के संपादक इस तरह के प्रकाशनों को अहम हथियार मानते हैं.उन्होंने कहा, ''इन प्रकाशनों का असल मक़सद तो लोगों को जिहाद की तरफ खींचना होता है. ख़ासतौर पर मीडिया के इस दौर में हमारे अख़बार और पत्रिकाएं बहुत प्रभावशाली साबित हो रहे हैं और हमारे संगठन का 70 फ़ीसदी प्रचार इन्हीं अखबारों और पत्रिकाओं से होता है. इसलिए ये हमारे लिए बहुत अहम हथियार हैं.''जिहादी साहित्य का असरइन संपादक के मुताबिक इन्हें पढ़ने वाले बहुत से लोग जिहाद की तरफ़ आकर्षित हुए हैं.वह कहते हैं, ''हज़ारों की तादाद में लोग हमारे पास इन्हें पढ़ने के बाद आए हैं. नए कार्यकर्ताओं को जुटाने के लिए ये अहम साधन हैं. बहुत से लोग इन्हें पढ़कर आकर्षित होते हैं. ये लोग हमें फ़ोन करते हैं, पत्र भेजते हैं और हमें पसंद करते हैं.''
सरकार से ग़ैरमान्यता प्राप्त अपने प्रकाशन के बारे में इन संपादक का कहना था, ''ये चरण काफी मुश्किल होता है और अतीत में संगठनों पर लगे प्रतिबंध भी राह की रुकावट बन सकते हैं. हमें कार्यकर्ताओं से संपर्क भी रखना होता है. इसलिए पंजीकरण कराए बिना ही संगठन प्रकाशन और वितरण का सिलसिला जारी रखते हैं.''विशेषज्ञों के मुताबिक चरमपंथ के शिकार पाकिस्तान में नफ़रत और ख़ास जिहादी उद्देश्यों पर आधारित ऐसे अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं की वजह से और अशांति फैलने का खतरा है. इसलिए यह जानना बहुत ज़रूरी है कि सरकार की नाक के नीचे संगठन कैसे यह काम जारी रखे हैं.

Posted By: Satyendra Kumar Singh