भारत से पहले रॉकेट छोड़ा, फिर 'फ़्लॉप' हो गया पाक स्पेस प्रोग्राम?
क्या आप जानते हैं कि पूरे एशिया महाद्वीप में पाकिस्तान ऐसा तीसरा देश और दुनिया का 10वां देश था जिसने अंतरिक्ष में सफलता पूर्वक रॉकेट छोड़ा था?
क्या आप जानते हैं कि पाकिस्तान ने अंतरिक्ष में अपना पहला रॉकेट, भारत के पहला रॉकेट छोड़ने से पूरे एक साल पूर्व भेज दिया था?आख़िर क्या वजह है कि मौजूदा दौर में दुनिया भर के टॉप स्पेस कार्यक्रमों में भारत का 'इसरो' शामिल है जबकि पाकिस्तान के 'सुपारको' का ज़िक्र मुश्किल से ही मिलता है।बात 1960 की है। कराची में पाकिस्तान-अमरीकी काउंसिल का लेक्चर चल रहा था और स्पीकर ने अपने एक बयान से सबको चौंका दिया।"पाकिस्तान अब स्पेस एज में दाखिल होने वाला है और बहुत जल्द हम अंतरिक्ष में एक रॉकेट भेजने वाले हैं।"प्रोफ़ेसर अब्दुस सलाम के भाषण का हिस्सा अगले दिन दुनिया के तमाम जाने-माने अख़बारों के पहले पन्नों पर छपा।अमरीका ने की मदद
ये वही अब्दुस सलाम थे जो आगे चल कर विज्ञान के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार जीतने वाले पहले मुसलमान और पाकिस्तानी थे।
पाकिस्तान में जानकार बताते हैं कि अब्दुस सलाम ने 1958-59 के दौरान पाकिस्तान के शासक जनरल अयूब ख़ान से मुलाक़ातें बढ़ा दी थीं।लेकिन ये दौर सिर्फ दस साल तक रहा और जनरल याह्या खान और प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के दौर में प्राथमिकताएं तेज़ी से बदलीं।
परवेज़ हुदभाई ने बताया, "कुछ हद तक ये बात सही है कि स्पेस प्रोग्राम की फंडिंग में कटौती होती रही जो जनरल ज़िया-उल-हक़ के ज़माने में और तेज़ हो गई। मंज़र कुछ ऐसा था कि पाकिस्तान को सुरक्षा की चिंता ज़्यादा सता रही थी और कुछ जंगे भी हो चुकी थीं। बस यहीं से पाकिस्तान का फ़ोकस एटम बम और मिसाइल तकनीक पर जम गया। जो बेहतरीन वैज्ञानिक थे वे एटोमिक परीक्षण के काम में लग गए और दूसरे मिसाइल बनाने में। इस सब में स्पेस कार्यक्रम पीछे छूटता गया"।कुछ लोगों की राय ये भी है कि 1970 के दशक के बाद से पाकिस्तान की नज़दीकियां चीन से भी खासी बढ़ चुकीं थीं और तकनीकी मदद का आदान प्रदान भी।इसी सिलसिले के साथ सुपारको के प्रमुख भी वरिष्ठ फ़ौजी अफ़सर होने लगे और रिसर्च का काम धीमा होता गया। मिसाल के तौर पर साल 2001 के बाद से सुपारको के चीफ़ पाकिस्तान फ़ौज के मेजर जनरल रैंक के अफ़सर होते रहे हैं। मिसाइल बनाने पर है ध्यानभारत में विज्ञान मामलों के जानकार पल्लव बागला मानते हैं कि पाकिस्तानी स्पेस कार्यक्रम 'फ्लॉप' होता गया और उम्मीद से बहुत पहले ही 'उसका फ़ोकस डगमगा गया'।
उनके मुताबिक़, "भारत और पाकिस्तान दोनों ने अमरीका से स्पेस प्रोग्राम में मदद ली। फ़र्क यही रहा कि पाकिस्तान में आगे चलकर इसे सरकारी समर्थन मिलना कम होता गया और भारत में इसके विपरीत समर्थन बढ़ता गया।''उन्होंने, ''आज भी भारत का स्पेस कार्यक्रम बजट करीब सवा अरब डॉलर है जो अमरीका या चीन की तुलना में कहीं कम है। लेकिन पाकिस्तान में यही बजट भारत से कोई 50-60% कम है"।हालांकि 1980 के दशक में पाकिस्तान के मशहूर वैज्ञानिक मुनीर अहमद ख़ान ने जिया-उल-हक़ के साथ मिलकर सुपारको में नई जान फूंकने की कोशिश थी।उन्होंने कहा, "फ़िलहाल पाक़िस्तान का पूरा ध्यान मिसाइलें बनाने पर है और स्पेस प्रोग्राम का हाल ये है कि न तो नए सैटलाइट लांच हो रहे हैं और जो हो भी रहे हैं वे नाकाम हो रहे हैं। दरअसल पाकिस्तान में एक बड़ा मसला ये भी है कि पढाई के स्तर, उच्च विज्ञान पर तवज्जो कम होता जा रहा है "।