भीतर नरक है या आत्मा? खुद के अंदर ही मिलेगा जवाब : ओशो
कभी आप कहते हैं, भीतर नरक है। कभी आप कहते हैं, भीतर आत्मा है। कभी आप कहते हैं, सबके भीतर बैठे परमात्मा को नमस्कार! हम क्या समझें? ठीक पूछते हैं आप। भीतर बहुत बड़ी घटना है लेकिन सबसे पहले नरक है और जिस दिन नरक को कोई देख लेगा, पहचान लेगा पूरी तरह, तत्क्षण नरक से छलांग लगा कर बाहर हो जाएगा। आत्मा शुरू हो जाएगी, नरक से जिसने छलांग लगा ली, उसको आत्मा का दर्शन शुरू होगा और आत्मा से भी जो छलांग लगा लेगा उसे परमात्मा का दर्शन शुरू होगा। कुछ लोग नरक पर ही रुक जाते हैं। कुछ लोग नरक पर भी नहीं जाते, उसके बाहर ही घूमते रहते हैं लेकिन यह यात्रा करनी पड़ेगी, नरक पर जाना पड़ेगा ताकि हम छलांग लगा सकें और आत्मा पर रुक जाते हैं कुछ लोग, उन्हें लगता है कि बस ठीक है, नरक से छलांग लग गई, मैंने जान लिया कि मैं कौन हूं, बस अब यात्रा खत्म हो गई।
अभी यात्रा खत्म नहीं हो गई, अभी बूंद ने सिर्फ बूंद होना पहचाना, अभी बूंद को सागर होना भी पहचानना है क्योंकि जब तक बूंद सागर न हो जाए तब तक बूंद परेशानी में रहेगी। जब तक बूंद सागर न हो जाए तब तक बूंद सीमित रहेगी। जब तक बूंद सागर न हो जाए, तब तक बूंद का बहुत सूक्ष्म अहंकार मौजूद रहेगा। तो अंतिम छलांग शून्य में है, जहां सब खो जाती है- आत्मा भी! मेरा होना भी! तब फिर उसका ही होना रह जाता है- जो अस्तित्व है- जो है। उसमें जब कोई लीन होता है, तब समय के बाहर कालातीत, तब मृत्यु के बाहर अमृत और तब अंहकार के बाहर अनंत आलोक का जगत शुरु होता है। समस्त धर्म में यही चल रहा है, लेकिन हो नहीं सका।
समस्त प्राणों की यही प्यास है लेकिन हो नहीं सका। हम भी यही चाहते हैं, सब यही चाहते हैं लेकिन चाहने ही से यह न होगा, सिर्फ चाहने से ही कुछ भी न होगा, कुछ करना पड़ेगा। भीतर की यह कठिन यात्रा पूरी करनी पड़ेगी और कठिनाई सबसे बड़ी पहले कदम पर है। वह जो नरक है, उसको ही देखने पर है। हम उसी से बचकर, उस नरक को लीपने- पोतने लगते हैं। पंडित नेहरू इलाहाबाद आए थे, मैं उन दिनों इलाहाबाद में था। जिस रास्ते से वे गुजरने वाले थे, उस रास्ते के एक मकान में मैं ठहरा हुआ था। उस रास्ते के सामने ही एक गंदा नाला था। अब पंडित नेहरू वहां से निकल रहे हैं तो क्या किया जाए? तो जिन लोगों की नरकों और नालियों को सदा की दबाने की आदत है, वे होशियार हैं। उन्होंने फौरन कई गमले लाकर उस नाले में रख दिए। बड़े- बड़े गमले लाकर रख दिए। पंडित नेहरू निकले, बड़े खुश हुए होंगे- फूल ही फूल हैं। नीचे नाला बह रहा था। सब तरफ नाले बह रहे हैं, ऊपर से फूल लगाए हुए हैं, ऊपर से फूल सजा दिए हैं। ठीक है लेकिन सड़क पर किसी नाले को फूल से ढांक दो, हर्ज भी ज्यादा नहीं लेकिन भीतर के नालों को फूल से ढांक दिया तो बहुत हर्ज है और हम भीतर वही ढांके हुए हैं।
- ओशो