आपने दुनिया के तमाम देशों के नाम सुने होंगे। इन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ से मान्यता मिली है। ये देश आपस में कारोबार करते हैं समझौते करते हैं।


मगर, दुनिया में ऐसे भी देश हैं, जिनका नाम-पता आपको मालूम ही नहीं। जिनके बारे में आपने सुना ही नहीं।हो सकता है, जाने अनजाने आप इनमें से कोई देश घूम भी आए हों। आपको यक़ीन भले ही न हो, लेकिन दुनिया में ऐसे बहुत से इलाक़े हैं जहां रहने वाले अलग देश के नागरिक होने का दावा करते हैं। कइयों के अपने झंडे हैं, अपनी करेंसी है, अपना टैक्स का सिस्टम है।ऐसे देश अमेरिका से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक फैले हैं। ये बात और है कि इन्हें न संयुक्त राष्ट्र मान्यता देता है, न दूसरे देश। नाम सुनिएगा तो चौंक जाइएगा। कुछ ऐसे मुल्क़ों के नाम नोश फ़रमाइए।।।अल्टानियम, क्रिस्टियानिया, एल्गालैंड-वरगालैंड।तो चलिए, आपको ऐसे ही देशों की सैर पर ले चलते हैं, जिनके बारे में आपने कभी सुना न होगा।
इसके लिए आपको सबसे पहले मिलवाते हैं, ब्रिटेन की आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में भूगोल पढ़ाने वाले, निक मिडेलटन से। बड़ी दिलचस्प शख़्सीयत हैं मिडेलटन।


उन्होंने एक क़िताब लिखी है, जिसका नाम है, 'ऐन एटलस ऑफ कंट्रीज़ दैट डोंट एक्ज़िस्ट'। इसमें तमाम ऐसे देशों का ज़िक्र है जो अपनी पहचान की जंग लड़ रहे हैं। अपने आपको आज़ाद घोषित कर दिया है। जिनके पास अपनी करेंसी है, सरकार है और झंडा भी है। हालांकि इन्हें कोई और मान्यता नहीं देता। इन देशों ने अपना अलग ही संयुक्त राष्ट्र संघ भी बना लिया है।निक मिडिलटन कहते हैं कि 1933 की मोंटेवीडियो संधि की परिभाषा के हिसाब से तो इंग्लैंड भी एक देश नहीं।इसीलिए उन्होंने ऐसे देशों पर फोकस किया, जो मोंटेवीडियो संधि के पैमाने पर तो मुल्क़ हैं, मगर संयुक्त राष्ट्र संघ उन्हें मान्यता नहीं देता।निक ने ऐसे देशों की जो फ़ेहरिस्त बनाई है, उनमें से कुछ के नाम तो आपने पक्का सुने होंगे। जैसे ताइवान, तिब्बत, ग्रीनलैंड, और उत्तरी साइप्रस। इनके मुक़ाबले दूसरे ऐसे नाम हैं, जिनकी शोहरत कम है, लेकिन इरादों में कोई कमी नहीं। उनकी उम्मीदों का कोई ओर-छोर नहीं।जैसे अमेरिका में है लकोटा रिपब्लिक। इसकी जनसंख्या एक लाख है। दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क़ अमेरिका के ठीक सीने पर ख़म ठोककर खड़े हैं ये लोग, जो लसोटा सिओक्स जनजाति के हैं।ये ख़ुद को अलग देश मानते हैं। अपने आप को अमेरिकियों की लालच का शिकार बनाते हैं। इन लोगों के पुरखों ने 1868 में अमेरिका से समझौता किया था।

इसके मुताबिक़ इन्हें रॉकी पर्वत श्रृंखला के ब्लैक हिल्स इलाक़े में रहने की इजाज़त मिली थी। मगर, उन्नीसवीं सदी में सोने की तलाश में आए अमेरिकियों ने इनकी उम्मीदों को, इनके हक़ को रौंद डाला। अमेरिकी सरकार भी अपना वादा भूल गई।मिडेलटन बताते हैं कि इस नन्हें से देश में स्टैम्प का कारोबार चमक उठा है। हाल ये है कि ऑस्ट्रेलिया सरकार ने भी थक-हारकर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया। अब वो ऑस्ट्रेलिया की सरकार को टैक्स अदा नहीं करते।यूरोप में भी ऐसे कई देश हैं। जैसे स्कॉटलैंड के क़रीब स्थित शेटलैंड द्वीप पर बसाया गया देश फोरविक, ब्रिटिश समुद्र तट के क़रीब स्थित सीलैंड और डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन के ठीक बीच में स्थित क्रिस्टियानिया।क्रिस्टियानिया नाम का जो देश है, उसकी कुल आबादी है 850।1971 में कोपेनहेगेन में कुछ लोग सेना की एक पुरानी बैरक पर कब्ज़ा जमा लिया और ख़ुद को आज़ाद मुल्क़ घोषित कर दिया, जिसमें हर फ़ैसले पर हर नागरिक को वोट देने का हक़ हासिल है। है न दिलचस्प देश।
अब ऐसे देश का कोई करे भी तो क्या। डेनमार्क की सरकार ने भी उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया है। यहां के लोगों को डेनमार्क के बाक़ी लोगों के मुक़ाबले कुछ ज़्यादा आज़ादी हासिल है। मसलन यहां के लोग गांजा पी सकते हैं, जबकि बाक़ी डेनमार्क में इस पर पाबंदी है।इन देशों के बारे में पढ़कर एक बात तो पक्के तौर पर कही जा सकती है। दुनिया बदल रही है, लगातार। अब किसने सोचा था कि ताक़तवर सोवियत संघ एक दिन टूटकर बिखर जाएगा।हो सकता है आगे चलकर चौंकाने वाले बदलाव हों। पुराने देशों के बिखरने और नए देशों के जन्म लेने का सिलसिला लगातार चल रहा है। तो हो सकता है कि भविष्य में ऐसे तमाम इलाक़े, देशों में तब्दील हो जाएं, जिनका हमने नाम तक न सुना हो।


ऐसे तमाम देशों के बारे में जानकारी जुटाते-जुटाते निक मिडेलटन को भी इनमें से कुछ के प्रति सहानुभूति हो गई है।इस मुल्क़ की परिभाषा तो और भी व्यापक है। ये उस इलाक़े पर अपना दावा करता है, जो किसी और देश का हिस्सा नहीं। जैसे दो देशों की सीमाओं के बीच का नो मैंस लैंड। इसी तरह समंदर में भी ये देश उस हिस्से पर दावा करता है जो किसी और देश की समुद्री सीमा में नहीं आते। इस लिहाज़ से तो आप भी कई बार इस देश में घूमके आ चुके हों, और आपको पता भी नहीं चला।मिडेलटन को एल्गालैंड-वरगालैंड, क़िस्से कहानी के देश नार्निया जैसा लगता है, जिसके क़िस्से पढ़ने से ही ऐसे देशों की तलाश शुरू हुई थी।वो मानते हैं कि ऐसे देश भले ही आज़ादी हासिल न कर सकें, मगर इन्होंनेअंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बहस को तो जन्म दे ही दिया है कि मानवता ने ख़ुद को जिस तरह मुल्क़ों के पैमाने में बांध लिया है, सिर्फ़ वो परिभाषा ही सही नहीं। Posted By: Satyendra Kumar Singh