अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ से सटे नवजीवन प्रेस के कैंपस रेस्टोरेंट की अपनी ख़ासियत है।


इस रेस्टोरेंट में खाने पर कोई बिल नहीं देना पड़ता। आप खाने का पैसा मर्ज़ी मुताबिक़ चुका सकते हैं। इसके लिए आपको कोई कुछ कहेगा भी नहीं।'कर्म कैफ़े' नाम के इस रेस्टोरेंट को ठीक एक साल पहले नवजीवन प्रेस ने अपने कैंपस में शुरू किया था। नवजीवन प्रेस कई दशक से महात्मा गांधी की किताबें छापता रहा है।नवजीवन प्रेस के युवा प्रबंध निदेशक विवेक देसाई ने बीबीसी को बताया, "वक़्त के साथ गांधी मूल्यों में भरोसा करने वाले लोगों को भी बदलना चाहिए। इसी सोच के साथ हमने तय किया कि नवजीवन प्रेस में आने वाले लोगों के लिए कुछ नया किया जाए।"


विवेक देसाई कहते हैं, "नवजीवन प्रेस में किसी मुलाक़ाती के लिए पीने के पानी के अलावा कोई व्यवस्था नहीं थी, जबकि यहां रोज़ सैकड़ों लोग आते हैं। उन लोगों की सुविधा के लिए एक रेस्टोरेंट खोलने का विचार आया। लेकिन हमें गांधी जी के भरोसे जैसा रेस्टोरेंट खोलना था। तब हमने तय किया कि कोई हमारे रेस्टोरेंट में आए तो हम उसे बिल नहीं देंगे।"यही नहीं, इस रेस्टोरेंट में कोई वेटर नहीं है और न कोई मैनेजर। आपको जो खाना है, उसका ऑर्डर काउंटर पर देना होगा और फिर ख़ुद ही डिश ले जानी होगी।

खाने के बाद डिश वापस करना भी यहां की सेल्फ़ सर्विस के अंदर ही है।कैफ़े को संभालने वाले सुनील उपाध्याय बताते हैं, "हमारा मक़सद केवल रेस्टोरेंट चलाना नहीं है। मक़सद यहां आने वालों में गांधी साहित्य के प्रति दिलचस्पी भी पैदा करना है। इसके लिए कैफ़े के अंदर एक लाइब्रेरी भी है, जहां 10 रुपए से लेकर 30 रुपए तक की पुस्तकें हैं। यहां कोई भी बैठकर पुस्तक पढ़ सकता है।"इतना ही नहीं आपको कैफ़े के अंदर वाई-फ़ाई भी मुफ़्त मिलता है। उपाध्याय के मुताबिक़ यहां रोज़ डेढ़ सौ लोग आते हैं।तो क्या कभी ऐसा हुआ, जब लोग खाना खाकर चले गए हों और पैसे न दिए हों। यह पूछने पर सुनील उपाध्याय बताते हैं, "पहले कुछ लोग ऐसे आते थे, लेकिन अब उनकी संख्या न के बराबर है।"वैसे यहां कई लोग ऐसे भी आते हैं जो डिशेज़ की क़ीमतों को लेकर काफ़ी पूछताछ करते थे। ऐसे में अब कैफ़े में सामान के मूल्यों की सूची ज़रूर लगाई गई है, लेकिन उनके मुताबिक़ पैसा देने के लिए आपको कोई कहेगा नहीं और न मांगेगा।

इस रेस्टोरेंट के बारे में सेंट ज़ेवियर्स की छात्रा रोनी फ़र्नाडीज़ बताती हैं, "मैं तो यहां बीते छह महीनों से आती हूँ। यहां आना अच्छा लगता है। पहले तो सुना था कि यहां कोई बिल नहीं देता तो उत्सुकतावश आ गई लेकिन अब तो यहां खाना आदत में शुमार हो गया है।"

Posted By: Satyendra Kumar Singh