नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक बार फिर से चर्चा में है. मोदी संघ से जुड़े रहे हैं उसके सक्रिय प्रचारक रहे हैं और इसलिए उनकी राजनीति पर संघ परिवार की कितनी छाप होगी ये सवाल इन दिनों अक्सर सुनने में आते हैं.


लगभग 27 बरस पहले लिखी गई वाल्टर ऐंडरसन और श्रीधर दामले की किताब "दी ब्रदरहुड इन सैफ्रन" की गिनती आज भी संघ पर हुए बेहतरीन शोध कार्यों में होती है. वाल्टर ऐंडरसन 2003 तक अमरीकी विदेश विभाग से जुड़े रहे, वो दिल्ली में अमरीकी दूतावास में भी कार्यरत रहे और अब वाशिंगटन के जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशिया प्रोग्राम के निदेशक हैं.ऐंडरसन अब इस किताब को नए सिरे से लिखने पर काम कर रहे हैं. संघ और मोदी पर उनका क्या रुख़ है ये जानने के लिए मैने उनसे वर्जीनिया के ग्रेट फॉल्स इलाके में उनके घर जाकर बात की:भारत की जो गूगल पीढ़ी है उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में बहुत कम जानकारी है. क्या है संघ परिवार और इसका उद्देश्य क्या है?


इस संगठन की शुरूआत 1920 के दशक में हुई थी और इसका गठन एक तरह से पहले विश्व युद्ध के बाद पैदा हुए सांप्रदायिक माहौल में हिंदुओं की रक्षा करने के लिए हुआ. लेकिन फिर इसने एक ऐसे संगठन का रूप लिया जहां एक सोच उभरी कि नौजवानों के चरित्र निर्माण और अनुशासित जीवन के माध्यम से भारत का पुनरूत्थान हो सकता है.

भारत-पाक विभाजन की घोषणा के बाद उनकी छवि  हिंसा में विश्वास रखने वाले संगठन की बनी और पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिंदुओं की रक्षा के लिए उन्होंने आक्रामक रुख़ अपनाने की कोशिश की.जब संघ के एक पूर्व सदस्य ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी तो इस संगठन पर प्रतिबंध लग गया लेकिन इस बात का कोई सबूत नहीं मिला कि हत्या में संघ की कोई भूमिका थी या नहीं.क्या दुनिया में इस तरह के दूसरे संगठन हैं जो आरएसएस के समानांतर हों?ये काफ़ी हद तक हिंदुत्व पर आधारित है इसलिए जूडाइज्म, ईसाइयत या इस्लाम से जुड़े संगठनों से इसकी तुलना मुश्किल है. लेकिन जापान का बौद्ध संगठन "साका गाकाई" काफ़ी हद तक आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी का मिला-जुला स्वरूप है.जब इसका गठन हुआ था तो ये सवाल भारत में कई लोगों के मन में था कि ऐसा क्यों है कि हज़ारों मील दूर बसा एक छोटा सा देश हम पर शासन कर रहा है. इसके संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार का जवाब था कि भारतीय बंटे हुए हैं इसलिए ऐसा हुआ है और उस खाई को पाटने के लिए उन्होंने एक विस्तृत प्रशिक्षण प्रणाली की बात की जो भारत को संगठित कर सके.

संघ में मेरे एक जानकार ने मुझे बताया कि उनकी समझ से ये पहली बार है जब कार्यकर्ताओं ने शीर्ष नेतृत्व पर दबाव डाला कि इस चुनाव में वो मोदी का साथ दें और उन्हें अपनी दिशा बदलने के लिए बाध्य किया. आरएसएस से जुड़े बीजेपी के एक वरिष्ठ सदस्य ने मुझे बताया कि मीडिया में भले ही ये सोच हो कि संघ मोदी पर हावी होगा. हक़ीकत इससे बिल्कुल उल्टी है. और ये बेहद दिलचस्प है.आप पहली बार मोदी से कब मिले?जब वो वाशिंगटन आए थे 1992 में. मैं तब भारत से लौटा ही था और वो एक प्रतिनिधिमंडल के सदस्य बन कर आए थे. जो मुझे याद है वो एक गंभीर किस्म के इंसान थे और बहुत सारे सवाल पूछते थे.पिछले साल जब आप उनसे मिले तो क्या बदलाव नज़र आया?ये कहना मुश्किल है क्योंकि मैं उनका अंतरंग तो नहीं हूं. दरअसल, शायद ही कोई है. लेकिन जो मुझे दिखा वो था उनका आत्मविश्वास और वो निश्चित तौर से अपने मन के मालिक हैं.
उनका फ़ोकस काम को अंजाम देने पर होता है. मुझे बताया गया कि वो कभी छुट्टी नहीं लेते. जिस कमरे में हमारी मुलाक़ात हुई वो अपनी सादगी में बिल्कुल मठ की तरह नज़र आता था. उनका बार-बार कहना था कि हमें चीन की तरह काम करना चाहिए.मोदी को वीज़ा नहीं देने का जो मामला था क्या वहां कोई चूक हुई अमरीका से?इनमें से किसी से तुलना मुश्किल है क्योंकि सांस्कृतिक संदर्भ अलग है. वो अटल बिहारी वाजपेयी से काफ़ी प्रभावित हैं, और जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय को एक हीरो मानते हैं. वाजपेयी को भी वो उन्हीं नज़रों से देखते हैं.इतिहासकार विलियम डैलरिंपल उन्हें भारत का पुतिन कहते हैं.अगर तुलना करनी ही हो तो जिस तरह से  पुतिन एक महान रूस के पक्ष में हैं उसी तरह मोदी भी महान भारत का सपना देखते हैं. क्या वो पुतिन की तरह उन लोगों से चिढ़ते हैं जो अपने काम में ढीले हैं? बिल्कुल.लेकिन विश्व नेताओं में ये कोई बेहद अनूठी चीज़ नहीं है. मैं अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन के कार्यकाल के दौरान भी वाशिंगटन में था.अगर आप उनका विरोध करते तो उनका रुख़ ऐसा होता था जैसे वो आपके हाथ तोड़ देंगे. मैं ये नहीं कह रहा कि मोदी का ये रुख़ होगा लेकिन वो उन लोगों में से हैं जो सोचते हैं कि काम हर हाल में पूरा हो.एक भारतीय राजदूत से मेरी बात हो रही थी तो उनका कहना था कि नौकरशाही में इस बात का डर है कि मलाई खाने के दिन गए. वो लोगों का छुट्टी पर जाना पसंद नहीं करते और कई बार तो जहां काम चल रहा होता है ख़ुद वहां पहुंच जाते हैं ये देखने कि बात कहां तक पहुंची. पुतिन ऐसा नहीं करते.भारत के मुसलमान समुदाय में उनको लेकर आशंकाएं हैं. क्या वो सही हैं?आशंकाएं हैं लेकिन अगर देखें तो पहले के मुक़ाबले उन्हें मुसलमानों का काफ़ी वोट मिला है. मुसलमान समुदाय अभी भी सबसे ग़रीब तबकों में गिना जाता है. उन्हें आर्थिक विकास की सख़्त ज़रूरत है और उनमें से कई हैं जिन्हें नौकरी और विकास का एजेंडा पंसद आया है.लेकिन कई मामले हैं जैसे वंदे मातरम, यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड, धारा 370 - ये विवादास्पद हैं. मोदी का क्या रुख़ होगा इन पर?संघ एक संवैधानिक ढांचे के तहत ही काम करता है. पहले भी जब बीजेपी सत्ता में थी तो उन्होंने ऐसा ही किया था. मुझे लगता है कि उनकी कोशिश होगी कि शिक्षा प्रणाली में भारत की प्राचीन सभ्यता को ज़्यादा अहमियत मिले. हो सकता है कि पाठ्य पुस्तकों में बदलाव की कोशिश हो और उनके शब्दों में भारत का जो वास्तविक इतिहास है उस पर ज़ोर हो.आदिवासियों और दलितों के उत्थान की नीतियों पर ज़ोर होगा और ये नीति मोदी की सोच से भी मिलती है. इनका पिछड़ापन एक संगठित भारत की सोच के लिए नुक़सानदायक है और इसलिए इस क्षेत्र में और संसाधन लगाने की वो वकालत कर सकते हैं.आर्थिक नीति पर संघ और मोदी की सोच कितनी अलग है?संघ पारंपरिक रूप से स्वदेशी के पक्ष में रहा है. संघ और शुरुआती दिनों में बीजेपी के भी समर्थकों में छोटे व्यवसायियों की बड़ी तादाद थी और ये लोग भी स्वदेशी के पक्षधर रहे हैं. संघ से जुड़े कई विचारक भी विदेशी निवेश के ख़िलाफ़ नज़र आते हैं.मोदी की सोच अलग है क्योंकि पिछले 13 सालों में उन्होंने  गुजरात में जापान और चीन समेत अन्य विदेशी निवेश को काफ़ी बढ़ावा दिया. मेरा अंदाज़ा है कि वो खुदरा विदेशी निेवेश के भी हक़ में होंगे.जिन दो अर्थशास्त्रियों से वो प्रभावित नज़र आते हैं वो हैं अरविंद पनगढ़िया और जगदीश भगवती और ये दोनों इसे अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा मानते हैं. तो इस मामले पर  संघ और मोदी में टकराव पैदा हो सकता है.


अमरीका को लेकर उनकी सोच क्या है?हम दोनों के बीच वीज़ा मामले पर बात नहीं हुई क्योंकि वो एक संवेदनशील मामला है. लेकिन ये तय है कि उनका ध्यान अमरीका की तरफ़ नहीं, जापान, चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर होगा. हिंदू राष्ट्रवादियों का रुझान हमेशा से पूरब की ओर रहा है.बीसवीं सदी में भी इस सोच से प्रेरित लोग अध्ययन के लिए जापान का रुख़ करते थे. अंदर की सोच ये भी रही है कि पश्चिम से जो चीज़ें आईँ--इस्लाम, ईसाई धर्म, उपनिवेशवाद--इन सब ने समस्या पैदा की. अगर देखें तो पिछले सालों में मोदी ने सिंगापुर, जापान और चीन का ही दौरा किया है और वो भी कई बार. तो ये आर्थिक और सांस्कृतिक नीति का मिला-जुला स्वरूप होगा.ओबामा प्रशासन के लिए मोदी को लेकर आपकी क्या सलाह होगी?सबसे पहले तो वो दक्षिण एशिया पर एक ठोस नीति बनाएं जो अब तक नहीं नज़र आई है. मेरी समझ से रिपब्लिकन प्रशासन और तब की विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस की समझ इस मामले पर काफ़ी अच्छी थी कि भारत कहां फ़िट बैठता है.हो सकता है अगर हिलेरी क्लिंटन अगली राष्ट्रपति बन जाएं तो रिश्ते बेहतर होंगे क्योंकि वो भारत को समझती हैं. Posted By: Satyendra Kumar Singh