भारत में अमरीका की राजदूत नैंसी जे पॉवेल ने इस्तीफ़ा दे दिया है.


भारतीय मीडिया में ख़बरें आ रही थीं कि नैंसी पॉवेल को भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े की गिरफ़्तारी से उपजे तनाव और बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के बुलंद होते सितारों का सही आकलन नहीं कर पाने का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है.लेकिन अमरीकी विदेश मंत्रालय ने उन ख़बरों को निराधार बताया था.नैंसी पॉवेल के इस्तीफे के पीछे आखिर कौन सा दबाव काम कर रहा था, इसका पता लगाने के लिए बीबीसी संवाददाता पवन सिंह अतुल ने वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन से की.नैंसी पॉवेल के इस्तीफे के क्या मायने हैं?पांच छह साल पहले  भारत-अमरीका संबंध प्रगाढ़ थे. इनके और बेहतर होने की आशा की जा रही थी. लेकिन पिछले एक-दो साल से भारत के साथ अमरीका का रिश्ता कहीं जाता नज़र नहीं आ रहा था.


भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े वाले मसले से खासतौर से इस संबंध पर परछाइयां पड़ गई थीं. मुझे ऐसा लगता है कि नैंसी पॉवेल के इस्तीफे का संबंध कहीं न कहीं खोबरागड़े मामले से है.क्या इसकी वजह नैंसी पॉवेल का मोदी के साथ अमरीका के रिश्तों को कायम नहीं रख पाना है?मुझे नहीं लगता कि  नैंसी पॉवेल के इस्तीफे के पीछे मोदी फैक्टर है. वे मोदी से मिलने गई तो थीं.

बल्कि मुझे ऐसा आभास होता है कि हिंदुस्तान में नई सरकार बनने वाली है इसलिए अमरीका अपने लिए जगह बना रहा है.नैंसी पॉवेल और नरेंद्र मोदीजहां तक अमरीका के चुनाव का सवाल है, तो सबसे महत्वपूर्ण यह है कि अमरीका ऐसे शख्स को चुनेगा जो वाशिंगटन, खासतौर से ओबामा से सीधा संपर्क कर पाए. जरूरी नहीं कि वो भारतीय मूल के व्यक्ति को ही भेजे.भारत तो यह चाहेगा कि वह व्यक्ति ऐसा हो जो किसी भी मुद्दे के उठते ही झट से व्हाइटहाउस और ओबामा से संपर्क कर पाए. यह ज़्यादा अहमियत रखता है.संभव है कि  अमरीका डेमोक्रेटिक पार्टी के किसी वरिष्ठ नुमाइंदे को या वाशिंगटन और ओबामा को जानने वाले को भारत भेजे.नैंसी पॉवेल अपने पीछे क्या विरासत छोड़ कर जाएंगी?यह उनकी बदकिस्मती रही कि वह ऐसे वक्त भारत में अमरीकी राजदूत बन कर आईं जब भारत-अमरीका संबंध एक शिखर तक पहुंचने के बाद आगे नहीं बढ़ रहे थे, बल्कि थोड़े ठंडे पड़ रहे थे.

ऐसा भी कहा जा सकता है कि एक राजदूत का दायित्व बनता है कि वह गिरते हुए रिश्ते को फौरन सुधारे. मगर अफसोस है कि वह इस रिश्ते को सकारात्मक तरीके से संभाल नहीं पाई. लेकिन यह बहुत बड़ी वजह नहीं.करीबी रिश्ते के इस तरह से मोड़ पर आ जाने के पीछे कई वजहें रहीं. अमरीका की हिंदुस्तान में नौकरशाही भी इन वजहों में से एक है.इसके अलावा कुछ कारण उद्देश्य संबंधी भी हैं. जैसे कि अमरीका ने चाहा कि हिंदुस्तान बहुत सारा रक्षा उपकरण खरीदेगा, परमाणु मसला बहुत तेजी से आगे बढ़ेगा.मगर घरेलू परेशानियों के कारण हिंदुस्तान में यह सब हो नहीं पाया. इसलिए किसी एक अधिकारी को कसूरवार ठहराना सही नहीं है.भारतीय वायुसेना के विमान सौदे का मसला भी तो था...अमरीका के राजनयिकों की ओर से अमरीका और भारत के बीच भारतीय वायुसेना जहाज सौदा असफल हो जाने का ठीकरा नैंसी पॉवेल के सिर फोड़ना सही नहीं है. यह सच नहीं है कि वह यह सौदा नहीं करवा नहीं पाई.ये फैसला तो शायद उनके पहले ही हो चुका था. अमरीका ने तो बहुत कोशिश की कि उसके ही फाइटर एयरक्रॉफ्ट को चुना जाए.नैंसी कह सकती हैं कि बड़ा सौदा तो हाथ से निकल गया, लेकिन हिंदुस्तान ने 10 बिलियन डॉलर का अमरीका रक्षा उपकरण तो खरीदा ही है. ये कोई मामूली रकम नहीं.
अमरीका जानता है कि किसी एक व्यक्ति के कहने से या एक के काम से ये तमाम चीजें नहीं होती है. यह बेहद जटिल रिश्ता है, और दोनों तरफ बहुत सारे खिलाड़ी हैं.

Posted By: Subhesh Sharma